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२४. शरीर. कम्
मानुष्यं वपुराहुरुन्नतधियो नाडीव्रणं मेषर्ज तत्रानं वसनानि पट्टकमहो तत्रापि रागी जनः ॥ २ ॥ 917 ) नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा वपूंषि सर्वाशुचिभाजि निश्चितम् । ततः क एतेषु बुधः प्रपद्यते शुचित्वमम्बुप्लुतिचन्दनादिभिः ॥ ३ ॥ 918 ) तिक्तेवा [ क्ष्वा ]कुंफलोपमं वपुरिदं नैवोपभोग्यं नृणां स्यान्मोह कुजन्मरन्धरहितं शुष्कं तपोधर्मतः ।
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किंलक्षणं शरीरव्रणम् । दुर्गन्धम् । पुनः कृमिकीटजालकलितं व्याप्तम् । पुनः किंलक्षणं शरीरव्रणम् । नित्यस्रवत्-क्षरत् दूरसं निन्द्यरसम् । पुनः किंलक्षण शरीरव्रणम् । शौचस्नानविधानेन वारिणा विहितप्रक्षालनम्' । पुनः रुग्भृतं व्याधिभृतम् ॥ २ ॥ नृणाम् | अशेषाणि समस्तानि । वपूंषि शरीराणि । सदैव सर्वथा । निश्चितम् । अशुचिभाञ्जि अशुचित्वं भजन्ति । ततः कारणात् । कः बुधः । एतेषु शरीरेषु । अम्बुतिचन्दनादिः जलस्नानचन्दनादिभिः शुचित्वं प्रतिपद्यते ॥ ३ ॥ नृणाम् इदं वपुः । तिक्तेष्वा[ क्ष्वा ] कुफलोपमं कटुकबीफलसदृशं वर्तते । चेद्यदि । तपोधर्मतः शुष्कम् । स्यात् भवेत् । तदा भवनदी- संसारनदीतारे क्षमं समर्थ जायते । उपभोग्यं नैव । इदं वपुः । तुम्बीफलम् । अन्तः मध्ये गौरवितं न मध्ये गुरुत्वरहितम् । पक्षे तपोगौरव ज्ञानगर्वरहितम् ।
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पट्टी के समान है । फिर भी आश्चर्य है कि उसमें भी मनुष्य अनुराग करता है ॥ विशेषार्थ - यहां मनुष्य के शरीरको घावके समान बतलाकर दोनों में समानता सूचित की गई है । यथा-जैसे घाव दुर्गन्धसे सहित होता है वैसे ही यह शरीर भी दुर्गन्धयुक्त है, घावमें जिस प्रकार लटों एवं अन्य छोटे छोटे कीड़ोंका समूह रहता है उसी प्रकार शरीरमें भी वह रहता ही है, घावसे यदि निरन्तर पीव और खून आदि बहता रहता है तो इस शरीर से भी निरन्तर पसीना आदि बहता ही रहता है, घावको यदि जलसे धोकर स्वच्छ किया जाता है तो इस शरीर को भी जलसे स्नान कराकर स्वच्छ किया जाता है, घाव जैसे रोगसे पूर्ण है वैसे ही शरीर भी रोगों से परिपूर्ण है, घावको ठीक करनेके लिये यदि औषध लगायी जाती है तो शरीरको भोजन दिया जाता है, तथा यदि घावको पट्टी से बांधा जाता है तो इस शरीरको भी वस्त्रोंसे वेष्टित किया जाता है । इस प्रकार शरीरमें घावकी समानता होनेपर भी आश्चर्य एक यही है कि घावको तो मनुष्य नहीं चाहता है, परन्तु इस शरीर में वह अनुराग करता है || २ || मनुष्योंके समस्त शरीर सदा और सब प्रकार से नियमतः अपवित्र रहते हैं । इसलिये इन शरीरोंके विषयमें कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य जलनिर्मित स्नान एवं चन्दन आदिके द्वारा पवित्रताको स्वीकार करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य स्वभावतः अपवित्र उस शरीरको स्नानादिके द्वारा शुद्ध नहीं मान सकता है || ३ || यह मनुष्योंका शरीर कडुवी तुंबीके समान है, इसलिये वह उपयोगके योग्य नहीं है । यदि वह मोह और कुजन्मरूप छिद्रों से रहित, तपरूप घाम ( धूप ) से शुष्क ( सूखा हुआ ) तथा भीतर गुरुतासे रहित हो तो संसाररूप नदीके पार कराने में समर्थ होता है । अत एव उसे मोह एवं कुजन्मसे रहित करके तपमें लगाना उत्तम है । इसके विना वह सदा और सब प्रकार से निःसार है । विशेषार्थ - यहां मनुष्यके शरीर को कडुवी तुंबीकी उपमा देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार की तुंबी खानेके योग्य नहीं होती है उसी प्रकार यह शरीर भी अनुरागके योग्य नहीं है । यदि वह तुंबी छेदोंसे रहित, धूपसे सूखी और मध्य में गौरव (भारीपन ) से रहित है तो नदीमें तैरनेके काममें आती है । ठीक इसी प्रकारसे यदि यह शरीर भी मोह एवं दुष्कुलरूप छेदोंसे रहित, तपसे क्षीण
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१ श क कट्वेष्वाकु । २ क विहितं प्रक्षालनम् ।