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[878 : २१-१२
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पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः तन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्यादपद्मस्मृते.
रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् समर्था भवेत् ॥ १२ ॥ 878) वाणी प्रमाणमिह सर्वविदस्त्रिलोकी
समन्यसौ प्रवरदीपशिखासमाना। स्याद्वादकान्तिकलिता नृसुराहिवन्द्या
कालत्रये प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा ॥ १३॥ 879 ) क्षमस्व मम वाणि तजिनपतिश्रुतादिस्तुती
यदूनमभवन्मनोवचनकायवैकल्यतः। अनेकभवसंभवैर्जडिमकारणैः कर्मभिः कुतोऽत्र किल माशे जननि तादृशं पाटवम् ॥ १४ ॥
गिरः। उन्मार्गगायाः पापवचने प्रवर्तनशीलायाः। किंलक्षणात्कायात् । संवृतिवर्जितात् संवररहितात् । त्वत्पादपद्मस्थितेः मम । तत्कर्म नाशं व्रजतु । एषा तव पादपद्मस्थितिः । किल इति सत्ये। मोक्षफलप्रदा। अस्मिन् कर्मणि समर्था कथं न भवेत् । अपि तु भवेत् ॥ १२ ॥ इह लोके । वाणी । सर्वविदः सर्वज्ञस्य । प्रमाणम् । असौ वाणी । त्रिलोकीसग्रनि प्रवरदीपशिखासमाना। पुनः स्याद्वादकान्तिकलिता । पुनः किंलक्षणा वाणी। नृ-सुर-अहिवन्द्या । पुनः कालत्रये । प्रकटितम् अखिलं वस्तुतत्त्वं यया सा प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा ॥१३॥ भो वाणि । जिनपतिश्रुतादिस्तुतौ सतिविषये। मनोवचनकायवैकल्यतः। यत् अक्षरमात्रादिकम् उनम् अभवत् तत् मम क्षमस्व । भो जननि । किल इति सत्ये। अब जगति संसारे। मादृशे जने । कर्मभिः पीडिते। तादृशं पाटवं कुतः भवेत् । किंलक्षणैः कर्मभिः । अनेकभवसंभवैः । जडिमकारणः मूर्खत्वकारणैः ॥ १४ ॥ अयं पल्लवः जीयात् ।
वह तुम्हारे चरण-कमलके स्मरणसे नाशको प्राप्त होवे । ठीक भी है- जो तुम्हारे चरण-कमलकी स्मृति मोक्षरूप फलको देनेवाली है वह इस (पापविनाश) कार्यमें कैसे समर्थ नहीं होगी ? अवश्य होगी ॥ १२ ॥ जो सर्वज्ञकी वाणी (जिनवाणी) तीन लोकरूप घरमें उत्तम दीपककी शिखाके समान होकर स्याद्वादरूप प्रभासे सहित है। मनुष्य, देव एवं नागकुमारोंसे वन्दनीय है; तथा तीनों कालविषयक वस्तुओंके स्वरूपको प्रगट करनेवाली है; वह यहां प्रमाण (सत्य) है । विशेषार्थ- यहां जिनवाणीको दीपशिखाके समान बतलाकर उससे भी उसमें कुछ विशेषता प्रगट की गई है । यथा-दीपशिखा जहां घरके भीतरकी ही वस्तुओंको प्रकाशित करती है वहां जिनवाणी तीनों लोकोंके भीतरकी समस्त ही वस्तुओंको प्रकाशित करती है, दीपक यदि प्रभासे सहित होता है तो वह वाणी भी अनेकान्तरूप प्रभासे सहित है, दीपशिखाकी यदि कुछ मनुष्य ही वन्दना करते हैं तो जिनवाणीकी वन्दना मनुष्य, देव एवं असुर भी करते हैं; तथा दीपशिखा यदि वर्तमान कुछ ही वस्तुओंको प्रगट करती है तो वह जिनवाणी तीनों ही कालोंकी समस्त वस्तुओंको प्रगट करती है । इस प्रकार दीपशिखाके समान होकर भी उस जिनवाणीका स्वरूप अपूर्व ही है ॥ १३ ॥ हे वाणी ! जिनेन्द्र और सरस्वती आदिकी स्तुतिके विषयमें मन, वचन एवं शरीरकी विकलताके कारण जो कुछ कमी हुई है उसे हे माता ! तू क्षमा कर । कारण यह कि अनेक भवोंमें उपार्जित एवं अज्ञानताको उत्पन्न करनेवाले कमोंका उदय रहनेसे मुझ जैसे मनुष्यमें वैसी निपुणता कहांसे हो सकती है ! अर्थात् नहीं हो सकती है ॥ १४ ॥ समस्त भव्य जीवोंके लिये अभीष्ट फलको देनेवाला यह क्रियाकाण्डरूप कल्पवृक्षकी
१ च प्रतिपाठोऽयम् । भकश पद्मस्थिते ।