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२४२ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः
[856 : १९-९856 ) पूजाविधि विधिवदा विधाय देवे स्तोत्रं च संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः।
पुष्पाञ्जलिं विमलकेवललोचनाय यच्छामि सर्वजनशान्तिकराय तस्मै ॥९॥ 857 ) वीपमनन्दितगुणौघ न कार्यमस्ति
पूजादिना यदपि ते कृतकृत्यतायाः। स्वधेयसे तदपि तत्कुरुते जनोऽईन्
कार्या कृषिः फलकृते न तु भूपकृत्यै ॥ १०॥ एव सकलानि फलानि दत्ते । तदपि लोकः मोहेन तन्मोक्षफलं याचते एव ॥ ८ ॥ फलम् । अत्र देवे । विधिवत् विधिपूर्वकम् । पूजाविधिम् । च पुनः । स्तोत्रम् । विधाय कृत्वा । तस्मै सर्वज्ञाय । पुष्पाञ्जलिं यच्छामि ददामि । किंलक्षणोऽहं श्रावकः । संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः सानन्दचित्तः । किंलक्षणाय देवाय । विमलकेवललोचनाय । पुनः सर्वजनशान्तिकराय ॥ ९॥ अर्घम् । भो
भो श्रीपयनन्दितगणौध । यदपि। ते तव । कृतकृत्यतायाः कृतकार्यत्वात् । पूजादिना कार्य न अस्ति । तदपि । खश्रेयसे कल्याणाय। जनः तत्पूजादिकं कुरुते । तत्र दृष्टान्तमाह । कृषिः फलकृते-करणाय कार्या कर्तव्या, न तु भूपकृत्यै । लोकोऽयम् आत्मनः सुखहेतवे कृषि करोति, न तु राज्ञः सुखहेतवे ॥१०॥ इति श्रीजिनपूजाष्टकम् ॥ १९ ॥
किया करता है ॥ ८ ॥ हर्षरूप जलसे परिपूर्ण मनोव्यापारसे सहित मैं यहां विधिपूर्वक जिन भगवान्के विषयमें पूजाविधान तथा स्तुतिको करके निर्मल केवलज्ञानरूप नेत्रसे संयुक्त होकर सब जीवोंको शान्ति प्रदान करनेवाले उस जिनेन्द्रके लिये पुष्पांजलि देता हूं ॥९॥ मुनि पन (पद्मनन्दी) के द्वारा जिसके गुणसमूहकी स्तुति की गई है ऐसे हे अरहंत देव ! यद्यपि कृतकृत्यताको प्राप्त हो जानेसे तुम्हें पूजा आदिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा है, तो भी मनुष्य अपने कल्याणके लिये तुम्हारी पूजा करते हैं। ठीक भी है
खेती अपने ही प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये की जाती है, न कि राजाके प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार किसान जो खेतीको करता है उसमेंसे वह कुछ भाग यद्यपि करके रूपमें राजाको भी देता है तो भी वह राजाके निमित्त कुछ खेती नहीं करता, किन्तु अपने ही प्रयोजन ( कुटुम्बपरिपालन आदि) के साधनार्थ उसे करता है । ठीक इसी प्रकारसे भक्त जन जो जिनेन्द्र आदिकी पूजा करते हैं वह कुछ उनको प्रसन्न करनेके लिये नहीं करते हैं, किन्तु अपने आत्मपरिणामोंकी निर्मलताके लिये ही करते हैं। कारण यह कि जिन भगवान् तो वीतराग ( राग-द्वेष रहित ) हैं, अतः उससे उनकी प्रसन्नता तो सम्भव नहीं है। फिर भी उससे पूजकके परिणामोंमें जो निर्मलता उत्पन्न होती है उससे उसके पाप काँका रस क्षीण होता है और पुण्य कर्मोका अनुभाग वृद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकार दुखका विनाश होकर उसे सुखकी प्राप्ति स्वयमेव होती है । आचार्यप्रवर श्री समन्तभद्र स्वामीने भी ऐसा ही कहा है-न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ अर्थात् हे भगवन् ! आप चूंकि वीतराग हैं, इसलिये आपको पूजासे कुछ प्रयोजन नहीं रहा है । तथा आप चूंकि वैरभाव (द्वेषबुद्धि) से भी रहित हैं, इसलिये निन्दासे भी आपको कुछ प्रयोजन नहीं रहा है। फिर भी पूंजा आदिके द्वारा होनेवाले आपके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापरूप कालिमासे बचाता है [ स्व. स्तो. ५७. ] ॥ १०॥ इस प्रकार जिनपूजाष्टक समाप्त हुआ ॥ १९ ॥
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१भक कृषिः।