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२३६ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः
[838:१७-७तेजासौख्यहतेरकरी यदिदं नक्तंचराणामपि
क्षेमं वो विधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा । ७॥ 838 ) भव्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविः प्रामोति यत्रोदयं
दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं जागर्ति सर्व जगत् । नित्यं यैः परिपठ्यते जिनपतेरेतत्प्रभाताष्टकं
तेषामाशु विनाशमेति दुरितं धर्मः सुखं वर्धते ॥ ८॥ सुप्रभातम् । नक्तंचराणां देवचन्द्रराक्षसादीनाम् । सौख्यहतेः तेजः अकर्तृ 'हन् हिंसागत्योः' देवादीनां सुखेन गमनस्य तेजः तस्य तेजसः अकर्तृ अकारकम् ॥ ७॥ यत्र सुप्रभाते। भव्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविः उदयं प्राप्नोति । यत्र यस्मिन् प्रभाते । उदिते सति। सर्व जगत् दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं त्यक्तम्। जागर्ति एतत् जिनपतेः प्रभाताष्टकम् । यैः भव्यैः । नित्यं सदैव । परिपठ्यते । तेषा भव्यानाम् । दुरितं पापम् । आशु शीघ्रण । विनाशम् एति विलयं गच्छति। धर्मः सुखं वर्धते ॥८॥ इति सुप्रभाताष्टकम् ॥१७॥ कुवलय ( सफेद कमल ) को विकसित नहीं करता, बल्कि उसे मुकुलित ही करता है। परन्तु जिन भगवान्का सुप्रभात उस कुवलयको ( भूमण्डलके समस्त जीवोंको) विकसित (प्रमुदित) ही करता है। लोकप्रसिद्ध प्रभात निशाचरों ( चन्द्र, चोर एवं उलूक आदि) के तेज और सुखको नष्ट करता है, परन्तु जिन भगवान्का वह सुप्रभात उनके तेज और सुखको नष्ट नहीं करता है। इस प्रकार वह जिन भगवान्का अपूर्व सुप्रभात सभी प्राणियोंके लिये कल्याणकारी है ॥ ७॥ जिस सुप्रभातमें भव्य जीवोंरूप कमलोंको आनन्दित करनेवाला केवलज्ञानरूप सूर्य उदयको प्राप्त होता है तथा सम्पूर्ण जगत् ( जगत्के जीव) पाप कर्म के उदयरूप निद्रासे छुटकारा पाकर जागता है अर्थात् प्रबोधको प्राप्त होता है उस जिन भगवान्के सुप्रभातकी स्तुतिस्वरूप इस प्रभाताष्टकको जो जीव निरन्तर पढ़ते हैं उनका पाप शीघ्र ही नाशको प्राप्त होता है तथा धर्म एवं सुख वृद्धिंगत होता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला सूर्य उदयको प्राप्त होता है उसी प्रकार जिन भगवान्के उस सुप्रभातमें भव्य जीवोंको प्रफुल्लित करनेवाला केवलज्ञानरूप सूर्य उदयको प्राप्त होता है तथा जिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर जगत्के प्राणी निद्रासे रहित होकर जाग उठते हैं उसी प्रकार जिन भगवान्के प्रभातमें जगत्के सब प्राणी पापकर्मके उदयस्वरूप निद्रासे रहित होकर जाग उठते हैं-प्रबोधको प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह जिन भगवान्का सुप्रभात अनुपम है। उसके विषयमें जो श्रीमुनि पद्मनन्दीने आठ श्लोकोंमें यह स्तुति की है उसके पढ़नेसे प्राणियोंके पापका विनाश और धर्म एवं सुखकी अभिवृद्धि होती है ॥ ८ ॥ इस प्रकार सुप्रभाताष्टक समाप्त हुआ ॥ १७ ॥
१च श सदिद। १श सीघ्र ।