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२१८ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः
[769 : १४-२८763) दिढे तुमम्मि जिणवर दोहिमि चक्खूहिं तह सुही अहियं ।
हियए जह सहसच्छोहोमि' त्ति मणोरहो जाओ ॥ २८ ॥ 770) दिटे तुमम्मि जिणवर भवो वि मित्तत्तणं गओ एसो।
एयम्मि ठियस्स जओ जायं तुह दंसणं मज्झ ॥ २९ ॥ 771 ) दिढे तुमम्मि जिणवर भव्वाणं भूरिभत्तिजुत्ताणं ।
सव्वाओ सिद्धीओ होंति' पुरो एकलीलाए ॥ ३० ॥ 772 ) दिढे तुमम्मि जिणवर सुहग 772) दिटे तमम्मि जिणवर सहगइसंसाहणेकबीयम्मि।
कंठगयजीवियस्स वि धीरं संपजएं परमं ॥ ३१ ॥ 773 ) दिट्टे तुमम्मि जिणवर कमम्मि सिद्धे ण किं पुणो सिद्धं ।
सिद्धियरं को णाणी महइ ण तुह दंसणं तम्हा ॥ ३२॥ 774) दिढे तुमम्मि जिणवर पोम्मकयं दसणत्थुई तुज्झ ।
जो पहु पढइ तियालं भवजालं सो समोसरइ ॥ ३३ ॥ 775) दिट्टे तुमम्मि जिणवर भणियमिणं जणियजणमणाणंदं ।
सव्वेहिं पढिजंतं गंदउ सुइरं धरावीढे ॥ ३४॥ समुद्रेण इव । सुखं समुल्लसितम् ॥ २७ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति सहस्राक्षः द्वाभ्यां चक्षुा तथा अधिक सुखी जातः यथा हृदयेन अतिमनोरथो जातः अत्यानन्दो जातः ॥ २८ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति एष भवः संसारोऽपि मित्रत्वं गतः । यतः यस्मात्कारणात् । एतस्मिन् भवे संसारे स्थितस्य मम तव दर्शनं जातं प्राप्तम् ॥२९॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति भूरिभक्तियुक्तानां भव्यानां सर्वाः सिद्धयः एकलीलया पुरः अग्रे भवन्ति ॥३०॥ भो जिनवर त्वयि दृष्टे सति कण्ठगतजीवितस्यापि परमं धैर्य संपद्यते । किंलक्षणे त्वयि । सुगतिसंसाधनैकबीजे ॥३१॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति तव क्रमकमले सिद्धे सति किं न सिद्धम् । अपि तु सर्व सिद्धम् । तस्मात् कारणात् कः ज्ञानी तव दर्शनं न महति वाञ्छति ॥ ३२॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति । भो प्रभो पद्मनन्दिकृतं तव दर्शनस्तवं यः त्रिकालं पठति स भव्यः भवजालं संसारसमूहं स्फेटयति ॥ ३३ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति इदं भणितं कथितं तव स्तोत्रम् । सुचिरं बहुकालम् । धरापीठे भूमण्डले । नन्दतु वृद्धि गच्छतु । कथंभूतं स्तोत्रम् । जनितजनमनो-आनन्दम् । पुनः किंलक्षणं स्तोत्रम् । सर्वैः भव्यैः पट्यमानम् ॥ ३४ ॥ इति जिनवरदर्शनस्तवनम् ॥ १४ ॥ उदय होनेपर समुद्र आनन्द (वृद्धि ) को प्राप्त होता है ॥ २७ ॥ हे जिनेन्द्र ! दो ही नेत्रोंसे आपका दर्शन होनेपर मैं इतना अधिक सुखी हुआ हूं कि जिससे मेरे हृदयमें ऐसा मनोरथ उत्पन्न हुआ है कि मैं सहस्राक्ष (हजार नेत्रोंवाला ) अर्थात् इन्द्र होऊंगा ॥ २८ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर यह संसार भी मित्रताको प्राप्त हुआ है। यही कारण है जो इसमें स्थित रहनेपर भी मेरे लिये आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ॥२९॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर अतिशय भक्तिसे युक्त भव्य जीवोंके आगे सब सिद्धियां एक क्रीडामात्रसे (अनायास) ही आकर प्राप्त होती हैं ॥ ३० ॥ हे जिनेन्द्र ! शुभ गतिके साधनेमें अनुपम बीजभूत ऐसे आपका दर्शन होनेपर मरणोन्मुख प्राणीको भी उत्कृष्ट धैर्य प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शनसे आपके चरणके सिद्ध हो जानेपर क्या नहीं सिद्ध हुआ? अर्थात् आपके चरणोंके प्रसादसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । इसलिये कौन-सा ज्ञानवान् पुरुष सिद्धिको करनेवाले आपके दर्शनको नहीं चाहता है ? अर्थात् सब ही विवेकी जन आपके दर्शनकी अभिलाषा करते हैं ॥ ३२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो भव्य जीव पद्मनन्दी मुनिके द्वारा रची गई आपकी इस दर्शनस्तुतिको तीनों संध्याकालोंमें पढ़ता है वह हे प्रभो ! अपने संसारसमूहको नष्ट करता है ॥ ३३ ॥ हे जिनेन्द्र आपका दर्शन करके मैंने भव्य जनोंके मनको आनन्दित करनेवाले जिस दर्शनस्तोत्रको कहा है वह सबके पढ़नेका विषय बनकर पृथिवीतलपर चिर काल तक समृद्धिको प्राप्त हो ॥ ३४॥ इस प्रकार जिनदर्शनस्तुति समाप्त हुई ॥ १४ ॥
१क होही। २च प्रतिपाठोऽयम् । अ क श होदि । ३ ब वि हरिसं संपज्जए। ४ अक श सिद्धे ण किं सिद्धं, च सिद्धे ण किं पुरा सिद्धं । ५ क थुई, च युवं, ब थुयं, श थुइ । - ६ क श पढज्जतं ।
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