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________________ [१३. ऋषभस्तोत्रम् ] 682 ) जय उसह णाहिणंदण तिहुवणणिलएकदीव तित्थयर । जय सयलजीववच्छल णिम्मलगुणरयणणिहि णाह ॥१॥ 683) सयलसुरासुरमणिमउडकिरणकब्बुरियपायपीढ तुमं । धण्णा पेच्छंति थुणंति जवंति झायंति जिणणाह ॥२॥ 684) चम्मच्छिणा वि दिढे तह तइलोए ण माइ महहरिसो। णाणच्छिणा उणो जिण ण-याणिमो किं परिप्फुरद ॥३॥ 685 ) तं जिण णाणमणंतं विसईकयसयलवत्थुवित्थारं । जो थुणइ सो पयासइ समुहकहमवडसालूरो ॥४॥ 686) अम्हारिसाण तुह गोत्तकित्तणेण वि जिणेस संचरह । आएसं मग्गंती पुरओ हियइच्छिया लच्छी ॥५॥ भो उसह भो ऋषभ । भो णाहिणंदण भो नाभिनन्दन । भो त्रिभुवननिलयएकदीप त्रिभवनगृहदीप । भो तीर्थकर । भो सकलजीववत्सल। भो निर्मलगुणरत्ननिधे । भो नाथ । त्वं जय ॥१॥ भो जिननाथ । भो सकलसुरासुरमणिमुकुटकिरणः कर्बुरितपादपीठ । त्वां जिन धन्या नराः प्रेक्षन्ते स्तुवन्ति जपन्ति ध्यायन्ति ॥ २॥ भो जिन । त्वयि चर्मनेत्रेणापि दृष्ट सति महाहर्षः त्रैलोक्ये न माति । पुनः ज्ञाननेत्रेण त्वयि दृष्टे सति कियत् आनन्दं परिस्फुरति तद् वयं न जानीमः ॥ ३ ॥ भो जिन । यः पुमान् सर्वोपदेशेन त्वां स्तौति । किंलक्षणं त्वाम् । ज्ञानमयम् अनन्तम् । पुनः किंलक्षणं त्वाम् । विषयीकृतसकलवस्तुविस्तारं गोचरीकृतसकलपदार्थम् । स पुमान् अवटकूपमण्डूकः ददुरः । समुद्रकथां प्रकाशयति ॥४॥ भो जिनेश । भो श्रीसर्वज्ञ । मम सदृशानां [ अस्मादृशानां ] जनानाम् । तव गोत्रकीर्तनेन तव नामस्मरणेन । हृदयस्थिता [ हृदयेप्सिता ] मनो • हे ऋषभ जिनेन्द्र ! नाभि राजाके पुत्र आप तीन लोकरूप गृहको प्रकाशित करनेके लिये अद्वितीय दीपकके समान हैं, धर्मतीर्थके प्रवर्तक हैं, समस्त प्राणियोंके विषयमें वात्सल्य भावको धारण करते हैं, तथा निर्मल गुणोंरूप रत्नोंके स्थान हैं । आप जयवन्त होवें ॥ १ ॥ नमस्कार करते हुए समस्त देवों एवं असुरोंके मणिमय मुकुटोंकी किरणोंसे जिनका पादपीठ (पैर रखनेका आसन ) विचित्र वर्णका हो रहा है ऐसे हे ऋषभ जिनेन्द्र ! पुण्यात्मा जीव आपका दर्शन करते हैं, स्तुति करते हैं, जप करते हैं, और ध्यान भी करते हैं ॥ २ ॥ हे जिन ! चर्ममय नेत्रसे भी आपका दर्शन होनेपर जो महान् हर्ष उत्पन्न होता है वह तीनों लोकोंमें नहीं समाता है। फिर ज्ञानरूप नेत्रसे आपका दर्शन होनेपर कितना आनन्द प्राप्त होगा, यह हम नहीं जानते हैं ॥ ३ ॥ हे जिनेन्द्र ! जो जीव समस्त वस्तुओंके विस्तारको विषय करनेवाले आपके अनन्त ज्ञानकी स्तुति करता है वह अपनेको उस कूपमण्डूक (कुएँमें रहनेवाला मेंढक ) के समान प्रगट करता है जो कुएँमें रहता हुआ भी समुद्रके वृत्तान्त (विस्तारादि ) को बतलाता है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार कुएँमें रहनेवाला क्षुद्र मेंढक कभी समुद्रके विस्तार आदिको नहीं बतला सकता है उसी प्रकार अल्पज्ञ मनुष्य आपके उस अनन्त ज्ञानकी स्तुति नहीं कर सकता है जिसमें कि समस्त द्रव्ये एवं उनके अनन्त गुण और पर्यायें युगपत् प्रतिभासित हो रही हैं ॥४॥ हे जिनेन्द्र! आपके नामके कीर्तनसे-केवल नामके स्मरण मात्रसे- भी हम जैसे मनुष्योंके सामने मनचाही लक्ष्मी आज्ञा मांगती १श ज्झायन्ति । पद्मनं० २६
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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