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-420 : ६-२४] ६. उपासकसंस्कार
१३१ 420 ) अणुवतानि पश्चैव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि चत्वारि द्वादशेति गृहिव्रते ॥ २४॥ उदुम्बरपञ्चकं त्यजनीयम् । एते गृहिणः गृहस्थस्य । मूलगुणाः दृष्टिपूर्वकाः सम्यग्दर्शनसहिताः। प्रोक्ताः कथिताः ॥ २३ ॥ गृहिव्रते इति द्वादश व्रतानि सन्ति । पश्चैव अणुव्रतानि । त्रिप्रकार गुणव्रतम् । चत्वारि शिक्षाव्रतानि । इति द्वादश व्रतानि ॥२४॥ बड़ और पीपल) का त्याग करना चाहिये । सम्यग्दर्शनके साथ ये आठ श्रावकके मूलगुण कहे गये हैं ॥ विशेषार्थ-मूल शब्दका अर्थ जड़ होता है । जिस वृक्षकी जड़ें गहरी और बलिष्ठ होती हैं उसकी स्थिति बहुत समय तक रहती है। किन्तु जिसकी जड़ें अधिक गहरी और बलिष्ठ नहीं होती उसकी स्थिति बहुत काल तक नहीं रह सकती—वह आंधी आदिके द्वारा शीघ्र ही उखाड़ दिया जाता है। ठीक इसी प्रकारसे चूंकि इन गुणोंके विनाश्रावकके उत्तर गुणों ( अणुव्रतादि) की स्थिति भी दृढ़ नहीं रहती है, इसीलिये ये श्रावकके मूलगुण कहे जाते हैं । इनके भी प्रारम्भमें सम्यग्दर्शन अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उसके विना प्रायः व्रत आदि सब निरर्थक ही रहते हैं ॥ २३ ॥ गृहिव्रत अर्थात् देशव्रतमें पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत; इस प्रकार ये बारह व्रत होते हैं । विशेषार्थ-हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच स्थूल पापोंका परित्याग करना; इसे अणुव्रत कहा जाता है । वह पांच प्रकारका है- अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । मन, वचन और कायके द्वारा कृत, कारित एवं अनुमोदना रूपसे ( नौ प्रकारसे) जो संकल्पपूर्वक त्रस जीवोंकी हिंसाका परित्याग किया जाता है उसे अहिंसाणुव्रत कहते हैं । स्थूल असत्य वचनको न स्वयं बोलना और न इसके लिये दूसरेको प्रेरित करना तथा जिस सत्य वचनसे दूसरा विपत्तिमें पड़ता हो ऐसे सत्य वचनको भी न बोलना, इसे सत्याणुव्रत कहा जाता है। रखे हुए, गिरे हुए अथवा भूले हुए परधनको विना दिये ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है । परस्त्रीसे न तो स्वयं ही सम्बन्ध रखना और न दूसरेको भी उसके लिये प्रेरित करना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष कहा जाता है । धन-धान्यादि परिग्रहका प्रमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना, इसे परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहते हैं । गुणव्रत तीन हैं-दिखत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण । पूर्वादिक दस दिशाओंमें प्रसिद्ध किन्हीं समुद्र, नदी, वन और पर्वत आदिकी मर्यादा करके उसके बाहिर जानेका मरण पर्यन्त नियम कर लेनेको दिनत कहा जाता है । जिन कामोंसे किसी प्रकारका लाभ न होकर केवल पाप ही उत्पन्न होता है वे अनर्थदण्ड कहलाते हैं और उनके त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहा जाता है। जो वस्तु एक ही वार भोगनेमें आती है वह भोग कहलाती है- जैसे भोजनादि । तथा जो वस्तु एक वार भोगी जाकर भी दुवारा भोगनेमें आती है उसे उपभोग कहा जाता है-जैसे वस्त्रादि । इन भोग और उपभोगरूप इन्द्रियविषयोंका प्रमाण करके अधिककी इच्छा नहीं करना, इसे भोगोपभोगपरिमाण कहते हैं । ये तीनों व्रत चूंकि मूलगुणोंकी वृद्धिके कारण हैं, अत एव इनको गुणव्रत कहा गया है। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत हैं । दिव्रतमें की गई मर्यादाके भीतर मी कुछ समयके लिये किसी गृह, गांव एवं नगर आदिकी मर्यादा करके उसके भीतर ही रहनेका नियम करना देशावकाशिकव्रत कहा जाता है। नियत समय तक पांचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग कर देनेको सामायिक कहते हैं। यह सामायिक जिनचैत्यालयादिरूप किसी निर्बाध एकान्त स्थानमें की जाती है। सामायिकमें स्थित होकर यह विचार करना
१क द्वादशानि व्रतानि ।