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१. धर्मोपदेशामृतम्
नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते तत्रैकत्वमपि प्रमाणदृढया भेदप्रतीत्याहतम् ॥ १३७ ॥ 138) कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुङ्क्ते स्वयं तत्फलं सातासात गतानुभूतिकलनादात्मा न चान्यादृशः ।
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क्रिया युज्यते (?)। तत्र नित्यानित्ययोर्द्वयोर्मध्ये । प्रमाणदृढया भेदप्रतीत्या कृत्वा । एकत्वम् आहतम् । निश्चयेन अभेदं भेदरहितम् । म्यवहारेण मेदयुक्तं तत्त्वम् ॥१३७॥ असौ आत्मा स्वयं शुभाशुभं कर्म कुर्यात् । च पुनः । स्वयम् । तत्फलं पुण्यपापफलम् । भुङ्क्ते । सातासात गतानुभूतिकलनात् पुण्यपापानुभवनात् । आत्मा अन्यादृशः जडः न । अयम् आत्मा चिद्रूपः । अयम् आत्मा
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समान कुछ भी अर्थाक्रिया न हो सकेगी । जैसे- यदि आत्माको कूटस्थ नित्य ( तीनों कालों में एक ही स्वरूप से रहनेवाला ) स्वीकार किया जाता है तो उसमें कोई भी क्रिया ( परिणाम या परिस्पंदरूप) न हो सकेगी । ऐसी अवस्था में कार्यकी उत्पत्तिके पहिले कारणका अभाव कैसे कहा जा सकेगा ? कारण कि जब आत्मामें कभी किसी प्रकारका विकार सम्भव ही नहीं है तब वह आत्मा जैसा भोगरूप कार्यके करते समय था वैसा ही वह उसके पहिले भी था । फिर क्या कारण है जो पहिले भी भोगरूप कार्य नहीं होता ? कारणके होनेपर वह होना ही चाहिये था । और यदि वह पहिले नहीं होता है तो फिर पीछे भी नहीं उत्पन्न होना चाहिये, क्योंकि, भोगरूप क्रियाका कर्ता आत्मा सदा एक रूप ही रहता है अन्यथा उसकी कूटस्थनित्यताका विधात अवश्यम्भावी है । कारण कि पहिले जो उसकी अकारकत्ल अवस्था थी उसका विनाश होकर कारकत्वरूप नयी अवस्थाका उत्पाद हुआ है । यही कूटस्थ नित्यताका विधात है । इसी प्रकार यदि आत्माको सर्वथा क्षणिक ही माना जाता है तो भी उसमें किसी प्रकारकी अर्थक्रिया न हो सकेगी । कारण कि किसी भी कार्यके करनेके लिये स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं इच्छा आदिका रहना आवश्यक होता है । सो यह क्षणिक एकान्त पक्षमें सम्भव नहीं है । इसका भी कारण यह है कि जिसने पहिले किसी पदार्थका प्रत्यक्ष कर लिया है उसे ही तत्पश्चात् उसका स्मरण हुआ करता है और फिर तत्पश्चात् उसीके उक्त अनुभूत पदार्थका स्मरणपूर्वक पुनः प्रत्यक्ष होनेपर प्रत्यभिज्ञान भी होता है । परन्तु जब आत्मा सर्वथा क्षणिक ही है तब जिस चित्तक्षणको प्रत्यक्ष हुआ था वह तो उसी क्षणमें नष्ट हो चुका है । ऐसी अवस्थामें उसके स्मरण और प्रत्यभिज्ञानकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? तथा उक्त स्मरण और प्रत्यभिज्ञानके विना किसी भी कार्यका करना असम्भव है । इस प्रकारसे क्षणिक एकान्त पक्षमें बन्ध-मोक्षादि की भी व्यवस्था नहीं बन सकती है । इसलिये आत्मा आदिको सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक न मानकर कथंचित् (द्रव्यदृष्टि से ) नित्य और कथंचित् (पर्यायदृष्टि से ) अनित्य स्वीकार करना चाहिये । जो पुरुषाद्वैतवादी आत्माको परब्रह्मस्वरूपमें सर्वथा एक स्वीकार करके विभिन्न आत्माओं एवं अन्य सब पदार्थोंका निषेध करते हैं उनके मतका निराकरण करते हुए यहां यह बतलाया है कि सर्वथा एकत्वकी कल्पना प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित है । जब विविध प्राणियों एवं घट-पदादि पदार्थोंकी पृथक् पृथक् सत्ता प्रत्यक्षसे ही स्पष्टतया देखी जा रही है तब उपर्युक्त सर्वथा एकत्वकी कल्पना भला कैसे योग्य कही जा सकती है ? कदापि नहीं | इसी प्रकार शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत और चित्राद्वैत आदिकी कल्पना भी प्रत्यक्षादिसे बाधित होनेके कारण माह्य नहीं है; ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ १३७ ॥ वह आत्मा स्वयं शुभ और अशुभ कार्य करता है तथा स्वयं उसके फलको भी भोगता है, क्योंकि, शुभाशुभ कर्मके फलस्वरूप सुख