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योग और साधना
तारा आखिर तारा है और सूर्य सूर्य है । इसको विधि की विडम्बना कहिये या हमारी मजबूरी । जिस प्रकार कोई तारा पृथ्वी के समक्ष वह छोटा हो या बड़ा सूर्य के समानान्तर कोई प्रकाश व्यवस्था नहीं चला सकता; ठीक उसी प्रकार हम इस प्रकृति की इस परम सत्ता के समानान्तर कोई अलग दुनियाँ नहीं बनाए रख सकते । यदि अपने अहम् वश ऐसा करेंगे, तो हम निश्चय ही सूर्य के समक्ष तारे की तरह से बहुन जल्दी ही, बिना किसी शंका के अस्त हो ही जायेंगे। कहावत भी है, कि अभिमान तो रावण का भी नहीं रहा, जो कि उस समय के महानतम साधकों में से एक था।
इस आध्यात्मिक संसार में साधक को कदम-कदम पर सजग रहकर अपने कर्मों में लगे रहना पड़ता है। नहीं तो उससे गलती हो जाने की ही सम्भावना अधिक रहती है । यों तो जड़ से जड़ बुद्धि इन्सान भी अनगिनत ठोकरों के खा लेने के पश्चात् अपना बचाव करना सीख ही जाता है। लेकिन शिक्षक का काम बताने का होता है । कृष्ण केवल इसी कारण से इस मार्ग के साधकों के लिए गीता के रूप में उपदेश देकर गये हैं। मनुष्य च कि मनुष्य है परमात्मा नहीं है । इसलिए ही वह गलतियों का कुम्भ है, और चुकि वह गलती दर गलती करता है, इसी लक्षण. से वह मनुष्य है । यदि इन्सान गलती करना छोड़ दे तो उसे मुक्त होते फिर देर थोड़े ही लगती है। लेकिन वह गलती क्यों न करेगा? जब तक उसकी वृत्तियाँ सात्विक, राजसिक एवं तामसिक गुणों से प्रभावित हैं और इन तीनों ही गुणों के कारण हम खिचते हैं इस संसार में, जिसमें आकर यहाँ हम दुःख उठाते हैं। जिसके कारण इस संसार को दुःखों का सागर कहने से भी हम नहीं चूकते हैं ।
___ मैंने किंवदिती सुनी है जब कोई साधक उस परम सत्ता का ध्यान करता है या उसको प्रार्थना में तल्लीन होता है। तब वह परम सत्ता उस साधक की परीक्षा लेने के लिए उसको पहले-पहले सिद्धियाँ देता है। असल सत्य का दर्शन कराने से पहले उसे थोड़ा अपनी सिद्धियों के लोभ में फंसाने की चेष्टा करता है, और देखता है कि कौन साधक मेरा वास्तव में भक्त है और कौन सा साधक ऐसा है जो केवल इन क्षुद्र सी सिद्धियों के लिए ही अपनी साधना में साधनारत् है ।
___ इस संसार में जो व्यक्ति जिस पद के लायक होता है कालान्तर में उसे वह मिल ही जाता है । हम साधना करते हैं तो निःसंकोच रूप से हमें उससे प्राप्ति भी
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