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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ योग और साधना से पहिले उसे छोटे-बड़े खिलोनो को मूर्ति पूजा के रूप में जानबूझ कर और बहुत अच्छी तरह से सोच समझ कर सम्भालने की छूट दी गयी है । जब हम भक्ति की तह तक पहुँचने वाले ही होते हैं तभी हमें पता चलता है कि न तो कहीं कोई अपने से अतिरिक्त परमात्मा मौजूद है इस प्रकृति में और न ही अपने से अलग कोई दूसरा मैं मौजूद है। जब इतना ज्ञान हमें अपनी प्रार्थना रूपी साधना से हो जाता है तभी हमें उन वाक्यों की सार्थकता समझ में आती है जिसमें कहा गया है " अहम् ब्रह्मास्मि" । मतलब हम ही ब्रह्म हैं यहाँ इस बात को समझते समय यह अवश्य ही ध्यान रहे कि, इस वाक्य का मतलब मैं ही ब्रह्म हैं नहीं समझ लेना चाहिये क्योंकि मैं ही ब्रह्म हूँ समझते ही एक प्रश्न हमारे सामने खड़ा हो जाता है कि जब मैं ही ब्रह्म हूँ, तब फिर बाकी संसार क्या है और बहुतलोगों ने इस प्रकार के अनुभव पाते ही अपने आपको भगवान घोषित कर दिया है। यह ठीक है बहुत सारी अलौकिक शक्तियाँ जो एक परम पुरुष में होती हैं साधारण पुरुष में नहीं होती उनमें आ जाती हैं । अथवा उनमें कुछ अंश जिन्हें हम भगबत स्वरूप मानते हैं आ जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद भी क्या वे इस प्रकृति में दखलन्दाजी कर सकते हैं। और बस, यही अकेली एक बात परख है जो उन्हें भगवान से अलग पुरुष के रूप में या मनुष्य के रूप में बनाए रखती है । लेकिन यदि हम सभी ब्रह्म हैं तब यह बात कुछ ज्यादा सरल होकर हमारे सामने उपस्थित होती है। क्योंकि तभी हम यह जान पाते हैं कि यहाँ इस में कोई भी कम नहीं है। न तो बह, और न ही हम चलने वाले समान पथिक हैं। बहुत भीतर से हम और जुड़े हैं अथवा बँधे हैं। सब के सब एक रास्ते में वह आपस में एक सूत्र से हम इस संसार में खून के रिश्ते को ही रिश्ता मानते हैं लेकिन यहाँ तो अपनी अस्मिता का ही रिश्ता है, जो कि खून के रिश्ते से तो बहुत-बहुत गुणा मजबूत है । खून का रिश्ता तो इस वर्तमान शरीर के छूटने के पश्चात टूट जाता है । लेकिन अस्मिता का रिश्ता तो सदा शाश्वत रिश्ता है जो हमारी मृत्यु के उपरान्त भी बना रहता है । इस बात को अच्छी तरह से हमारे मन में ख्याल आ जाने के पश्चात क्यों न हमारे चिन्तन में विश्व बन्धुत्व की भावना आयेगी । और जिन लोगों ने भी ब्रह्म के स्वरूप को इस प्रकार से जाना है वे लोग स्वयंभू भगवान न बनकर अपने For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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