SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ योग और साधना वहाँ हम वास्तविक रूप से प्रगट नहीं हो पाते हैं। यही एक कारण है हमारे बच्चेन होने का जिसके कारण हम असीमित की इच्छा रखते हुए भी इस संसार में सीमित ही रह जाते हैं। हम इस संसार में रहते हुए यहाँ की प्रत्येक बात को अच्छे या बुरे इन मापदण्डों के द्वारा ही मापते हैं । शरीर के स्तर पर जब हमें अच्छा लगता है उसे .हम मुखानुभूति कहते हैं। और वुरा लगने पर दुखानुभूति । लेकिन मन के स्तर पर जब हम अच्छी अनुभूति से भर उठते हैं उसे हम सुख न कहकर आनन्द कहते हैं और बुरा लगने पर उसे मानसिक दर्द कहते हैं । शारीरिक रूप से सुख और दुख अनुभव करते हुए हम इतने प्रभावित नहीं होते जितने कि हम अपने मानसिक स्तर पर आनन्द और दर्द को सहन करने के पपचात प्रभावित हो जाते हैं । राजमहल में रहने वाला सम्राट आनन्दित हो ही कोई जरूरी नहीं है, जबकि, सड़क के किनारे बैठे हुए फकीर को आप आनन्दित पा सकते हैं। बाहरी परिस्थितियों से सुख और दुःख में फर्क आता है लेकिन, अपने मन के भीतर के आनन्द और दर्द में ठीक उन्हीं परिस्थितियों से कुछ भी प.र्क पड़ने की सम्भावना तब तक नहीं है, जब तक उनमें स्वयं मन भी शामिल नहीं हो जाता । मेरी अपने जीवन में सुनी हुई कीमती कथाओं में से एक यह है जिसमें एक ही प्रकार की बाहरी परिस्थितियों में अलग-अलग तरह के मनों पर कितना विपरीत या अलग तरह का प्रभाव पड़ता है। एक सुनार और लुहार की दुकानें बिल्कुल बराबर-बराबर थीं। ग्वाली समय में जिस प्रकार सुनार और लुहार आपस में दोस्ताना बातचीत कर लिया करते थे। उसी प्रकार सोना और लोहा भी आपस में बातचीत किया करते थे । एक दिन सोना लोहे से बोला, "मित्र एक बात मुझे बताओ, जिस हथौड़े से हम पर चोट पड़ती है, ठीक वैसे ही हथौड़े से मुझ पर भीचोट पड़ती है लेकिन मैं देखता हूँ कि पिटते समय तुम कुछ ज्यादा ही चिल्लाते हो, क्या मैं जान सकता हूँ कि, तुम इतनी अधिक आवाज क्यों करते हो ?" थोड़ा सा संयत होकर लोहा बोला, "मित्र तुम सोना हो और पिटते लोहे के हीड़े से हो, जबकि मैं लोहा हूँ और लोहे से ही पिटता हूँ। इसी कारण मेरी चीख ज्यादा निकलती हैं, क्योंकि तुम गैरों से पिटते हो कोई खास बात नहीं है, लेकिन मैं अपनों से ही पिटता हूँ। मेरे दर्द का कोई ओर छोर नहीं है ।" For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy