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साकार हमारा चिन्तन-निराकार हमारा मार्ग
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लोग अपने भीतर के ब्रह्म को जान लेते हैं वह इस ब्रह्माण्ड की रूपरेखा भी ठीक उसी समय जान ही जाते हैं कि यह संसार ही ब्रह्म स्वरूप है। इसमें मैं और तू कहीं नहीं है । बस वह ही मौजूद है जब मेरे अन्दर का वह मेरा है तो सबके अन्दर का वह भी तो मेरा ही है । इतना जानकर कि सबका सब अपना ही है, तब कहीं कोई अपनी ही चीज को चुराता है अथवा कहीं कोई अपने को ही दुख देना चाहेगा । ऐसी सार्वभौमिकता जब हमारे भीतर जागृत हो जाती है तब ही हम समझ पाते हैं "वसुधैव कुटुम्बकम्" का आधार ।
इतना समझ पाने के बाद हमारा जीवन सारा का सारा प्रार्थनामय ही हो जाता है और यही है हमारे द्वारा की जाने वाली प्रार्थना का मर्म । इस प्रार्थना को जानकर ही हमारे मन में उस परम सत्ता में विलीन होने की लालसा जगती है ।
इस प्रकार की प्रार्थना के द्वारा ही हम मुक्ति को प्राप्त होते हैं, इसी प्रार्थना के द्वारा ही हम अपने बीज को मिटाने की क्षमता जागृत कर सकते हैं । पतंजलि भी जिस "निबीजस्य" स्थिति की बात कर रहे हैं। वह भी इस प्रार्थना के द्वारा ही प्राप्त होती है । इसी के द्वारा हम अपनी तमाम तामसी, राजसी एवं सात्विकी वृत्तियों पर विजय प्राप्त करते हैं । मायाजाल से हम अपना पीछा छुड़ा लेते हैं । और अपने बूद स्वरूप ब्रह्म को उस सागर रूपी परमब्रह्म में एक मुक्त आत्मा के रूप में हम उसे उस परम-आत्माओं के समूह में विलीन करके परमात्मा ही तो हो जाते हैं।
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