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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साकार हमारा चिन्तन-निराकार हमारा मार्ग २३५ लालसा, आकांक्षा इस पृथ्वी पर रची-बची माया के अनुरूप उसकी बनी होगी, वैसे वैसे ही संस्कार उसके चित्त पर जमे होगे तब वह जन्म दर जन्म लेता हुआ मानव बना होगा । इस तरह हम देखते हैं शुरू से ही न तो हम जबरदस्ती किसी के द्वारा यहां भेजे गये और यहां आकर भी अपनी आकांक्षा, अपनी लालसा को स्वयं ही भोग रहे हैं और इन सबको भोगने के पश्चात् हम स्वयं ही उस परम आत्माओं के सागर में विलीन होना चाहते हैं। कोई जबरन हमें यहां से नहीं भेज सकता। जब हम यहाँ की तमाम क्रियाओं फलों, सुखों एवं ऐश्वर्यों में उनकी व्यवस्था देखदेख लेते हैं । तब हम स्वयं ही यहां से जाना चाहते हैं और चले भी जाते हैं, उस परम समूह में विलीन होने के लिए। दूसरा प्रश्न है जब नर्क एवं स्वर्ग के द्वारा हमें हमारे कर्मों का फल दिया जा चुका है तब फिर यहाँ इस दुनियाँ में भी इतना भेदभाव क्यों मिलता है हमें जन्म लेने के पश्चात ? और फिर सारी जिन्दगी हम यहाँ आकर नर्क ही तो भोगते हैं। यह प्रश्न ही वहाँ उठता है जहाँ कोई साकार भगवान हो जबकि इस मत के अनुसार तो हमारा शरीर जब मृत्यु को प्राप्त करता है उसी समय हम स्थूल शरीर को त्याग कर सूक्ष्म शरीर धारण करके इस दुनियाँ से बाहर हो जाते हैं। तब हम चित्त के स्तर पर इधर से उधर विचरण करते रहते हैं हमारे चित्त पर उस समय जिन-जिन संस्कारों का बोझ होता है, वे संस्कार ही हमें दोबारा जन्म लेने के लिए अपने स्तर के अनुसार बेचैन कर देते हैं क्योंकि बिना स्थूल शरीर धारण किये कोई भी संस्कार भुगत ही नहीं सकता। यदि बहुत गहरे में विचार करके हम देखें तो हम पायेंगे कि हमारी कर्मों में लिप्तता ही हमें मजबूर करती है कि हम यथा सम्भव अपने कर्मों के अनुसार बनी इच्छा शक्ति के द्वारा जल्दी से जल्दी किसी न किसी गर्भ में समा जावें। जितनी हमारी मानसिक स्थिरता (इच्छा शक्ति) कमजोर होगी उतनी हो जल्दी हम स्वयं ही उतावलेपन के साथ किसी न किसी गर्भ में उतर जाते हैं । ध्यान रखना जिसका चित्त दूसरे अधिकारों के हनन, दूसरों को धोखा देने के प्रभाव या अन्य किसी प्रकार के निचले स्तर के विचारों से ग्रस्त है उसका चिरा For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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