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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ योग और साधना स्वरूप होकर परम आनन्द की स्थिति को प्राप्त करके परम-आत्माओं के समुह मे जा मिलती है जिसकी वजह से वह स्वयं भी परमात्मा हो ही जाती है । अन्त में मैं आत्मा के इस संसार से मुक्ति की बात लिखकर कुछ जिज्ञासुओं की शंकाओं का निवारण और करना चाहता हूँ। कुछ लोग यह कहते हैं कि हम तो संसार में मस्त हैं, क्यों हम इस सुन्दर संसार को छोड़े, जिसमें आने को देवता भी तरसते हुए बतलाये जाते हैं अथवा क्यों हम अपना अस्तित्व मिटायें । अभी पिछले दिनों मैं एक विदेशी ईसाई के संस्मरण पढ़ रहा था जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने अपनी जिन्दगी में साठ से ऊपर शादियाँ की, वह इतना अधिक खूबसूरत था कि लड़कियाँ उसके ऊपर जान लुटाती थीं उसे अपने समय का कामदेव का अवतार माना जाना चाहिये, उसे अपनी नई दुल्हन के लिये कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती थी, अपने सामने सजे हुऐ सुन्दर-सुन्दर फूलों के ढेर में से अपनी पसन्द का फूल जिसे वह अपने पिछले अनुभवों के अनुसार सबसे सुन्दर समझता था, बस चुन लेता था। इतना ही श्रम करना पड़ता था उसे अपनी नई दुल्हन चुनने के लिये । ऐसे ही एक बार जब वह अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ चर्च से शादी करके सीढ़ियाँ उतर रहा था। उसके हाथ में अपनी दुल्हन का हाथ था आठ-दस सीढ़ियाँ ही उतरना अब शेष था। वह क्या देखता है चार सफेद दूध जैसे घोड़ों से जुती हुई बग्घी आकर रुकी है, उसमें से एक बहुत ही सुन्दर नवयौवना उतर रही हैं और जैसे ही उस बग्धी वाली रूपसी से उसकी निमाहें मिलती है बस वह ठिठककर वहीं खड़ा रह जाता है, वह तुरन्त उसकी तरफ बढ़ने को होता है तो उसका हाथ नई दुल्हन के हाथ में होने के वजह से बाधा पड़ती है । तब उसे ख्याल आया कि अरे ! अभी तो मैंने इस बेचारी के साथ सुहागरात भी नहीं मनाई, और मैं उस अनजान युवती से शादी का प्रस्ताव करने चल पड़ा? ठीक इसी प्रकार के अनुभव हमें भी अपनी जिन्दगी मैं किसी न किसी प्रकार से मिलते ही रहते हैं जिनकी बजह से हम कह उठते हैं कि आज आया है For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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