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योग और साधना
जो पृष्ठों में लिखकर दो थीं, उनके बारे में उन्होंने कहा कि, “वे स्वतः ही निर्मूल हो जावेंगी, उनकी चिन्ता मत करो। मैं उनके सान्निध्य में से फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गया । मैं अपने आपको उनके द्वारा दीक्षित किया हुआ सा महसूस करके 'धन्य हो रहा था और सोच रहा था, इतनी सी बात के पीछे मैं इतने दिनों से भटक रहा था, चलो अब ही सही।
दूसरे दिन मैंने आसन बदल लिया और काफी जोश खरोश के साथ में अपनी साधना में बैठा लेकिन बहुत अफसोस हुभा, इस बात को जानकर कि मेरी यात्रा में जरा सा भी अन्तर नहीं आया था। मेरे अनुभव के हिसाब से यानि कुंभक को गहरा खींचते ही जब समय तीन मिनट के लगभग पहुँचता तो जो असहनशील प्राणों की टक्कर मस्तिष्क में मूलाधार से जाकर लगती। ठीक उसी समय मेरा मूत्र निकलने को होता । इन दोनों कारणों की वजह से मुझे कुंभक खोलने को बाध्य होना पड़ता था । आज भी वही सब हुआ था । बहुत हैंरान भी था कि कैसे होगी कुण्डलिनी जागृत कैसे सूक्ष्म का साक्षात्कार होगा ? जगद्गुरु से मिलने के 'पश्चात बड़ी आशा बंधी थी लेकिन वह भी आज पूर्णतः धराशायी हो गयी।
तीसरे दिन यानि १६ जून के प्रातः जब मैं अपनी साधना पर था, मैं अपने पुराने आसन पर ही आ गया, प्राणायाम खींचे स्थिति बिल्कुल वही, कहीं कोई बदलाव नहीं आया । प्राणायाम के बाद जब मैंने अपनी आँखें बन्द किये ही अपना आसन बोला और वहीं उसी तस्त पर शवासन में मैं लेट गया, क्योंकि ओमानन्द जी ने लिखा है कि यदि बैठने से प्राणों का सुषमणा में उत्थान न हो तो शवासन में लेटकर करने से क्रिया जल्दी घट जाती है, और ध्यान करने लगा।
__ मैं नहीं कह सकता घड़ी के हिसाब से उस समय कितना समय बीता होगा मुझे बड़ा भारी शोर सुनाई पड़ने लगा मुझे मेरे कमरे के बाहर से किसी ट्रक या किसी अन्य भारी वाहन को गडर-गडर की सी आवाज आ रही थी, लेकिन कुछ क्षणों के पश्चात ही मैंने पाया वह आवाज कमरे के बाहर से नहीं बल्कि मेरे शरीर में ही हो रही थी, गौर करने पर आवाज का स्वरूप कुछ इस प्रकार का लगा जैसे किसी सुरंग में से होकर बहुत तेजी से निकलती पानी धारा के द्वारा उसमें पड़े हुए मोटे-मोटे पत्थर जब लुढ़कते हुए गर्जन तर्जन सो करते हैं, कुछ इसी
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