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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुण्डलिनी जागरण ही समाधि इन तीनों ही प्रक्रियाओं को शुरू में अपनाना चाहिए । उस प्रथम भाग की तपश्चर्या के द्वारा हमारे शरीर की सहनशीलता बढ़ जाती है जिसकी वजह से हमारे शरीर के अवयव बिलकुल शुद्ध अवस्था में आ पाने हैं। उसमें चाहे मस्तिष्क हो, हृदय या फेंफड़े हों आते हैं । जब हमारा स्यूल शरीर उस ऊँचाई तक प्राणों के उत्पीड़न को सहन करने का आदी हो जाता है तब वह इसके परिणाम स्वरूप अपनी चरम ममता तक सक्रिय भी हो जाता है । यही कारण है कि प्राणायाम करने वाला व्यक्ति विलक्षण बुद्धि वाला तथा स्वस्थ दपकते ललाट का स्वामी हो ही जाता है । हम दिन-रात, सुबह-शाम, चौबीसों घण्टे प्रत्येक चार पांच सैकिण्ड के पश्चात् प्राण वायु को स्वांस के द्वारा ग्रहण करते और निकालते रहते हैं । हमारे असर का कितना भी जरूरी कार्य भले ही रुक जाये लेकिन यह कार्य प्रणाली सतत अपने आप चलती ही रहती है यह एक अकाट्य सत्य है । हम सोते हुये या जागते हुये बीस हजार से पच्चीस हजार तक स्वांस एक दिन में लेते हैं लेकिन यदि हम अपने मस्तिष्क को इसके ख्याल में लगायें तो हम पाते हैं कि इन बीस हजार स्वाँसों में से दो सौ स्वांस भी ऐसी नहीं है जिन पर हमने प्राणवायु के फेफड़ों में प्रवेश होते से और फिर बाहर निकलने की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर होश पूर्वक नजर रखी हो । एक तरीके से इतना बड़ा काम हमारे शरीर में हमारे उपस्थित रहते हुये हर समय होता रहता है लेकिन हमें हमारी बेहोशी के कारण उसका पता नहीं चलता है। इसका कारण सिर्फ इतना है कि अभी तक हम अपने प्रति भी होश में नहीं है और अपने प्रति होश जगाने का तरीका यदि हमारे पास कोई है तो वह यह है कि हम अपने शरीर की प्रत्येक धड़कन तथा प्रत्येक स्वांस पर ध्यान पूर्वक, होश-पूर्वक एवं जागृति के साथ चिन्तित हो जायें। इतनी परवाह किये वगैर हमारी बेहोशी टूटमी इतनी आसान कहाँ है ? यदि हमें अपना होश जगामा है तो ध्यान रखना-हमें चैतन्यता का अलख अपने अन्दर जगाना ही होगा। जब हम अपनी अन्दर और बाहर आती जाती हुई स्वांस पर अपना ध्यान ले आते हैं तब एक अजीब सा परिवर्तन उसकी गति में आ जाता है । अगर हमने For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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