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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
अर्थात् उस धर्म से विशिष्ट जो शब्द तत्-सम्बद्ध 'वृत्ति' का ज्ञान शाब्द-बोध में कारण बनता है । यहां यह आवश्यक नहीं है कि जिस धर्म से विशिष्ट 'वृत्ति' का ज्ञान हुआ है उसी धर्म से विशिष्ट शाब्द - बोध भी हो। इसलिये उपर्युक्त नियम के इस रूप को मानने पर इस भ्रान्त व्यक्ति को, घट पद से 'घट - विशिष्ट घटत्व' इस भ्रान्त बोध के समान ही घटत्व - विशिष्ट घट' इस निर्भ्रान्त अर्थ का भी बोध होना चाहिये । परन्तु यह बाद वाला निर्भ्रान्त ज्ञान उस भ्रान्त व्यक्ति को नहीं हुआ करता । इसलिये उस अनभीष्ट स्थिति के निवारण के लिये यहाँ प्रथम 'तद्धर्मावच्छिन्न' पद रखा
गया ।
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[ शाब्द ज्ञान में वृत्ति-कृत विशेषता के विषय में दो प्रकार के सम्बन्धों का, द्वितीय 'तदु धर्मावच्छिन्न' पद के प्रयोजन का तथा शाब्द-बोध-विषयक कार्य-कारण-भाव-रूप नियम के विविध प्रयोजनों का कथन ]
ज्ञाने वृत्ति-वैशिष्ट्यं च 'स्व-विषयको बुद्ध-संस्कारसमानाधिकरण्य' - 'स्वाश्रय-पद-विषयकत्व' - उभय-सम्बन्धेन बोध्यम् । तो नागृहीत- वृत्तिकस्य नापि तत्-पदम् अजानतः, नापि घट-पदा' श्रयत्वेनोपस्थिताकाशस्य, नापि जनकतयोपस्थित - चैत्रादेश्च बोधः ।
और (पद के ) ज्ञान में वृत्ति-कृत विशेषता दो सम्बन्धों से होतो है । पहला वृत्ति ( स्व ) - विषयक जो जागृत संस्कार तथा पद-ज्ञान इन दोनों का एक अधिकरण (पद रूप श्राश्रय) में होना । दूसरा 'वृत्ति' (स्व) का आश्रय-भूत जो पद, उस (पद) के विषय में ज्ञान का होना । इसलिये जिसे 'वृत्ति' का ज्ञान नहीं है, अथवा जो 'वृत्ति' को जानकर भी भूल गया है उस (व्यक्ति) को ( उस 'वृत्ति' से सम्बद्ध शब्द से ) अर्थ- ज्ञान नहीं होता । और नहीं उस पद को न जानने वाले (व्यक्ति) को अर्थ ज्ञान होता है । 'घट' पद के प्रश्रय के रूप में उपस्थित प्रकाश का भी बोध ('घट' पद से) नहीं होता और न, 'घट' शब्द के उच्चारणकर्त्ता के रूप में उपस्थित, चैत्र आदि ( किसी आदमी) का बोध (ही 'घट' शब्द से ) होता है ।
'वृत्ति - विशिष्ट - पद-ज्ञान' के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने यहां यह कहा कि पद-ज्ञान में वृत्ति का ज्ञान निम्न दो प्रकार सम्बन्धों से रहना चाहिये । त यह है कि श्रोता को जिस पद का ज्ञान हुआ है उसी पद-विषयक वृत्तिज्ञान के संस्कारों का उद्बोधन अथवा स्मरण भी उसे होना चाहिये। यह हुआ प्रथम-स्व-विषयको बुद्ध-संस्कार-समानाधिकरण्य' - सम्बन्ध । यहां 'वृत्ति' तथा 'पद' दोनों के ज्ञान का अधिकररण अथवा श्राश्रम एक ही हैं और वह है ज्ञात पद ।
दूसरी आवश्यक बात यह है कि उस 'वृत्ति' के प्राश्रयभूत पद का ही ज्ञान उस पद-विषयक शाब्द-वोध के लिये आवश्यक है, अन्य किसी पद का नहीं । इसे द्वितीय
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१. ह० -- घटपदाद् ।
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