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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
जिस प्रकार 'ब्राह्मण-कम्बलः' (इस समास-युक्त पद) में 'ब्राह्मण' शब्द का कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं है उसी प्रकार ('देवदत्त ! गाम् पानय' जैसे) वाक्य में 'देवदत्त' ग्रादि (पद) अनर्थक हैं
की इन विभिन्न कारिकामों में 'एकमात्र वाक्य-स्फोट' की ही सत्यता एव प्रमुखता प्रतिपादित की गई है।
['वर्ण-स्फोट' को मानने को आवश्यकता तथा स्थानी' और 'आदेश' को वाचकता के विषय में विचार
शास्त्र-प्रक्रिया-निर्वाहको वर्ण-स्फोट: । 'प्रकृति-प्रत्ययास् तत्तदर्थ-वाचकाः' इति तदर्थः । उपसर्गनिपातधात्वादिविभागोऽपि काल्पनिकः । स्थानिनो लादयः, प्रादेशास् तिबादयः कल्पिता एव । तत्र ऋषिभिः स्थानिनां कल्पिता अर्थाः कण्ठरवेणैव उक्ताः । आदेशानां तु स्थान्यर्थाभिधानसमर्थस्यैवादेशता' इति भाष्यन्यायात्' ते अर्थाः । एवं च 'स्थानिनां वाचकत्वम् अादेशानां वा' इति विचारो निष्फल एव, कल्पित-वाचकत्वस्य उभयत्र सत्त्वात् । मुख्यं वाचकत्वं तु कल्पनया बोधितसमुदायरूपे पदे वाक्ये वा। लोकानां तत एवार्थबोधात् ।
उन (स्फोटों) में 'वर्ण-स्फोट' (केवल) व्याकरण-शास्त्र की प्रक्रिया के निर्वाह के लिये ही (माना गया) है। 'प्रकृति' तथा 'प्रत्यय' उन उन अर्थो के वाचक हैं, यह 'वर्ण-स्फोट' का अभिप्राय है। उपसर्ग, निपात, तथा धातु आदि (आगम, आदेश, विकरण) का विभाग भी काल्पनिक ही है। स्थानी 'ल' (लकार) आदि तथा आदेश 'तिप्' आदि कल्पित ही हैं। उन (स्थानी तथा प्रादेश) में (पाणिनि आदि) ऋषियों ने स्थानियों ('ल' आदि) के अर्थ (साक्षात् अपने) शब्दों (“लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः," पा० ३.४.६९, आदि
प्रकाशित संस्करणों में 'वाचका एव' । २. हस्त० में अनुपलब्ध।
४. हस्त० 'आदेशत्वम् ।
प्रकाशित संस्करणों में 'भाष्यात्' पाठ है। उद्ध त पंक्ति महाभाष्य में नहीं मिलती। अत: 'भाष्यात्' की अपेक्षा 'भाष्यन्यायात्' पाठ अधिक उपयुक्त है क्योंकि महाभाष्य में इस आशय का कथन विद्यमान है (द्र० व्याख्या) । साथ ही सभी हस्तलेखों में 'भाष्यन्यायात्' पाठ ही मिलता है । लघुमंजूषा में भी यहां केबल 'न्यायात्' पाठ है।
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