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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इदानीम् प्रखण्डस्फोटपक्षम् ग्रह'पचति' इत्यादी न वर्णाः पदानाम् अपि वाक्याद् विवेको भेदो नास्ति इत्यर्थः । इस प्रसंग में यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि इस कारिका की स्वयं भर्तृहरिकृत स्वोपज्ञ टीका के अनुसार इसमें सखण्डस्फोटवाद प्रथवा नानात्वदर्शन का प्रतिपादन है न कि प्रखण्डस्फोटवाद अथवा एकत्वदर्शन का, जबकि भट्ट का इससे ठीक विपरीत प्रतिपादन है । स्वोपज्ञ वृत्ति के व्याख्याकार वृषभदेव' ने भी उपर्युक्त कारिका को सखण्डस्फोटवाद का ही प्रतिपादक माना है तथा यह कहा है कि इस कारिका से पहले की दो कारिकाओं में प्रखण्डस्फोटवाद का प्रतिपादन किया जा चुका है। इकतीस (ख) वैभूसा ० ( पृ० १५१) परोक्षत्वं च साक्षात्कृतम् इत्येतादृशविषयताशालिज्ञानाविषयत्वम् । (ग) वैभूसा ० ( पृ० १५६ ) तत्त्वं (भविष्यत्त्वम्) च वर्तमानप्राग भावप्रतियोगिसमयोत्पत्तिमत्त्वम् । २. तुलना के लिए दोनों ग्रन्थों के निम्न स्थल द्रष्टव्य हैं : (क) वैभूसा ० ( पृ० १४६) प्रारब्धापरिसमाप्तत्वं भूतभविष्यद्भिन्नत्वं वर्त्तमानत्वम् । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि लघुमंजूषा में भी नागेश ने प्रखण्डस्फोट सिद्धान्त का बड़े विस्तार से प्रतिपादन किया है परन्तु उस प्रसङ्ग में कहीं भी इस कारिका को उद्धृत नहीं किया गया । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह तो हुई पलम० के पूर्वार्ध भाग की स्थिति । उसके उत्तरार्ध भाग में जा कर भूसा का अधिक से अधिक अनुकरण किया गया है । कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि पलम० का प्रणेता वैभूसा० के प्रतिपाद्य को उसी के शब्दों में संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर रहा है । पलम० का 'कारकनिरूपण' अवश्य वैभूसा० के उस प्रकरण से भिन्न है परन्तु उसे वैसिलम ० का भी संक्षेप नहीं कहा जा सकता । पलम० का 'दशलकारादेशार्थ' वैयाकरणों की दृष्टि से 'लकार' के प्रदेश भूत' तिङ्' के अर्थ का विवेचन करता है । यह पूरा प्रकरण वैभूसा के 'लकारविशेषार्थः ' प्रकररण का ही संक्षेप है जिसमें प्राय: Toh ही वाक्यों को ले लिया गया है । के पलम० ( पृ० २४८ ) वर्तमानकालत्वं च प्रारब्धापरिसमाप्तक्रियोपलक्षितत्वम् । पलम० ( पृ० २५०) परोक्षत्वं च साक्षात्कृतम् इत्येतादृशविषयताशालिज्ञानाविषयत्वम् । पलम० ( पृ० २५२ ) भविष्यत्त्वं च वर्त्तमान प्रागभावप्रतियोगिक्रियोपलक्षितत्वम् । १. के० ए० एस० अय्यर सम्पादित वाप०, स्वोपज्ञवृत्ति तथा वृषभदेव की 'पद्धति' वृत्ति सहित, पृ० १३५; “एकत्ववादिमतं वर्णयन्नाह " पदभेदेऽपि तथा पृ० १३७,” नानात्वदर्शनम् अधिकृत्य आह - " पदे न वर्णाः" इति । वाप० १.७१-७२ -- पदभेदेऽपि वर्णानाम् एकत्वं न निवर्त्तते । वाक्येषु पदमेकं च भिन्नेष्वप्युपलभ्यते ॥ न वर्णव्यतिरेकेण पदमन्यच्च विद्यते । वाक्यं वर्णपदाभ्यां च व्यतिरिक्त न किंचन ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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