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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा _ 'व्यपेक्षा' पक्ष में (विद्यमान) दोष ('एकार्थीभाववाद' के सिद्धान्त, अर्थात् विशिष्ट समुदाय में ) 'शक्ति' का साधक है । भर्तहरि ने भी कहा है -
"पङ्कज' शब्द के समान 'समास' आदि ('वृत्तियों) में (अवयव-शक्ति से) भिन्न ही (समुदाय में) शक्ति है । (क्योंकि) 'वृत्तियों' के अनेक धर्मों ('विशेषण', 'सङ्ख्या', 'लिङ्ग', 'च' इत्यादि से सम्बद्ध न होना इत्यादि) को वचनों (वार्तिकों) के द्वारा सिद्ध करने में बहुत बड़ा गौरव (विस्तार) होगा।"
यदि 'पङ्कज' शब्द में (समुदाय में शक्ति न मानकर) अवयवों के अर्थों को ही ('पङ्कज' शब्द का अर्थ) मान लिया गया तो ('पङकज' शब्द से) शैवाल आदि का भी ज्ञान होने लगेगा। 'वृत्ति' के 'धर्म' (अर्थात्) 'विशेषण, 'लिङ्ग', 'सङख्या', आदि से असम्बन्ध-"सविशेषणानां वृत्तिन" इत्यादिवचनों के द्वारा साध्य है। इसलिये ('व्यपेक्षा' पक्ष में) उन उन ('धर्मों' के बोधक) वचनों को स्वीकार करना ही गौरव है। मेरे मत में, 'एकार्थीभाव' पक्ष के स्वीकार करने के कारण ,अवयवार्थ के न होने से, 'विशेषरण' आदि से सम्बन्ध का न होना न्याय सिद्ध बात है। (इसलिये) वचन भी नहीं बनाना पड़ेगा तथा (ये 'धर्म') भी स्वतः सिद्ध होंगे। इस प्रकार (इस पक्ष में) लाघव है।
इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए अपने अभिमत सिद्धान्त- 'एकार्थीभाव' सामर्थ-का समर्थन करने की दृष्टि से 'व्यपेक्षा' सामर्थ्य में उपस्थित होने वाले कुछ दोषों का यहाँ उल्लेख किया गया है तथा उन दोषों को ही समुदाय में ही शक्ति, या दूसरे शब्दों में 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य, के सिद्धान्त का साधक बताया गया है, अर्थात् इन दोषों के कारण अवयवों में अर्थाभिधान की 'शक्ति' न मान कर समुदाय में ही 'शक्ति' माननी चाहिये । समुदाय में 'शक्ति' मानना ही 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य है ।
समासे ..." पंकजशब्दवत्-इस प्रथम पक्ति में, 'समास' आदि 'वृत्तियों' के प्रयोगों के अवयवों में रहने वाली 'शक्ति' से भिन्न, समुदाय में रहने वाली, 'शक्ति' के दृष्टान्त के रूप में प्रसिद्ध 'पङ्कज' शब्द का उल्लेख किया गया है । यहाँ 'समास' शब्द सभी 'वृत्तियों' के उपलक्षण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। 'पङ्कज' शब्द का प्रयोग करने पर, समुदाय में विद्यमान 'शक्ति' से, सीधे ही 'कमल' रूप अर्थ का ज्ञान होता है। यदि अवयवों में विद्यमान अर्थाभिधान 'शक्ति' को भी स्वतंत्र रूप में स्वीकार किया जाय तो 'पङ्कज' शब्द से शैवाल आदि, जो भी पङ्क में उत्पन्न होते है उन सब, की प्रतिति होनी चाहिये । इससे स्पष्ट है कि भले ही यहाँ अवयवार्थ की सत्ता होती हो पर वह, अनेक अवयवों का अनेक अर्थ भी, समुदायार्थ में एकीभाव को प्राप्त हो जाता है--एक हो जाता है। इसलिये अवयवार्थरूपता नष्ट हो जाती है। इस प्रकार नैयायिक आदि 'व्यपेक्षा'-सामर्थ्य-वादी भी 'पङकज' जैसे शब्दों में समुदाय में ही 'शक्ति' मानते है-अवयवों में नहीं । तो जिस प्रकार ‘पङ्कज' शब्द में, समुदाय में 'शक्ति' मानी जाती है उसी प्रकार 'वृत्तियों' के अन्य प्रयोगों में भी समुदाय में ही 'शक्ति' मानी जानी चाहिये ।
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