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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा
से अन्वय नहीं किया जा सकता । अभिप्राय यह है कि 'राज-सम्बन्ध का पाश्रय पुरुष' इस रूप में 'पाश्रयता' रूप भेद सम्बन्ध से इन दोनों 'प्रातिपदिकार्थों' का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता । कारण यह है कि 'दो प्रातिपदिकार्थों (नामार्थों) का, विरोधी विभक्तियों के प्रभाव में, अभेदान्वय होता है' यह एक स्वीकृत न्याय है। द्र० --- "द्वयोः प्रातिपदिकार्थयोर् अभेदान्वयो व्युत्पन्नः' अथवा “नामार्थयोर् भेदेन साक्षाद् अन्वय-बोधोऽव्युत्पन्नः" । इस न्याय की चर्चा अनेक बार ऊपर हो चुकी है (द्र०-- पृष्ठ १६६-७०, १६१-६३, १६७, ४१५)।
इस प्रकार 'राज-पूरुषः' का अर्थ होगा 'राज-सम्बन्ध-रूप पुरुष', जब कि 'राजपुरुषः' प्रयोग से प्रतीत होने वाला अर्थ है 'राज-सम्बन्ध का आश्रय-भूत पुरुष' । इसलिये ये दोनों ही विकल्प दूषित हैं । इस कारण 'व्यपेक्षावाद' में 'लक्षणा' का सहारा लेने से भी काम नहीं चल सकता।
'एकार्थीभाव' सामर्थ्य के सिद्धान्त में यह दोष नहीं है क्योंकि इस सिद्धान्त में 'स्वत्व' सम्बन्ध से 'राजा का सम्बन्धी पुरुष' इस अर्थ में 'राजपुरुषः' इस समासयुक्त प्रयोग की 'शक्ति' मानी जाती है। इसलिये 'स्व-स्वामि-भाव' रूप 'भेद' सम्बन्ध के आधार पर 'राजा' में रहने वाली जो 'स्वामिता' है उससे निरूपित 'स्वता' से युक्त पुरुष अर्थात् 'राजा रूप स्वामी का पुरुष स्वम् (सम्पत्ति) है'- इस अर्थ का बोध होता है। इसी प्रकार का, 'स्व-स्वाभि-भाव' रूप भेद सम्बन्ध से, बोध 'राज्ञः पुरुषः' इस वाक्य से भी होता है। समुदाय को एक शब्द मानने के कारण यहाँ दो 'नाम' या 'प्रातिपदिक' नहीं हैं। इसलिये दो 'प्रातिपदिकार्थ' भी नहीं हैं। इस कारण 'अभेद' सम्बन्ध की बात यहाँ उठती ही नहीं। इस प्रकार वाक्यार्थ तथा वृत्त्यर्थ में भेद नहीं पाता।
ननु तहि ....... - बोध्यम् :-यहाँ यह कहा गया है कि यदि सर्वथा समान रूप से अर्थ का बोध कराने वाले वाक्य को ही विग्रह वाक्य (विवरण वाक्य) माना जाता है तो 'वैयाकरणः' तथा 'पाचकः' इस प्रकार के 'तद्धितान्त' तथा 'कृदन्त' प्रयोगों का क्रमश: 'व्याकरणम् अधीते' तथा 'पचति' इन वाक्यों को विग्रह वाक्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इन दोनों विग्रह वाक्यों तथा प्रयोगों के अर्थों में विषमता है। तद्धितान्त' तथा 'कृदन्त' प्रयोगों के अर्थों में 'व्यापार' के प्राश्रय 'कर्ता' की प्रधानता है जब कि इनके विग्रह वाक्यों में, क्रमशः 'अधीते' तथा 'पचति' इन क्रियापदों के प्रयोग किये जाने के कारण, स्वयं 'व्यापार' की ही प्रधानता है ।
___ इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यहाँ भट्टोजि दीक्षित की एक कारिका उद्धृत की गयी है। इस कारिका में यह कहा गया है कि 'तिङन्त' अर्थात् क्रियापद तद्धितान्त' एवं 'कृदन्त' प्रयोगों के अर्थों को कुछ ही अंशों में प्रकट करते हैं, सर्वथा उसी रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाते । इसका कारण यह है कि 'तद्धितान्त' तथा 'कृदन्त' प्रयोगों में 'व्यापार' का आश्रय 'कर्ता' प्रधान होता है, 'व्यापार' गौण होता है। परन्तु 'तिङन्त' पदों में 'ब्यापार' प्रधान होता है तथा 'व्यापार' का आश्रय 'कर्ता' गौरण । इसलिये 'तिङन्त' पदों को 'तद्धितान्त' तथा 'कृदन्त' प्रयोगों के अर्थों का थोड़ा बहुत ही बोधक माना गया है-पूर्ण रूप से नहीं।
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