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वैयाकरण- सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा
यदि 'राज-पुरुष:' प्रादि समास युक्त प्रयोगों में 'प्रातिपदिक' संज्ञा की सिद्धि ( प्राप्ति ) उसके पहले के सूत्र “अर्थवदधातु० " से ही हो जाय। पहले से 'प्रातिपदिक' संज्ञा की प्राप्ति के प्रभाव 'समास' पद को कदापि नियामक नहीं माना जा सकता क्योंकि तब तो यह पद नियामक न होकर 'प्रातिपदिक' संज्ञा का विधायक बन जाएगा ।
इस रूप में 'समास' पद के नियामक होने के कारण ही, "तृतीयाप्रभृतीनि अन्यतरस्याम्" ( पा० २.२.२१) इस सूत्र के अनुसार समासाभाव पक्ष में निष्पन्न होने वाले 'मूलकेन उपदंशं भुङङ्क्ते' इस प्रयोग में 'मूलकेनोपदंशम्' इस अंश की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होती । यदि यह नियम न उपस्थित हो तो "कृत्तद्धितसमासाश्च" इस सूत्र के 'कृत्' अंश के आधार पर उपर्युक्त प्रयोग में 'प्रातिपदिक' संज्ञा की अनिष्ट प्राप्ति होगी क्योंकि "कृद्-ग्रहणे गति कारक - पूर्वस्यापि ग्रहणं भवति" (परिभाषेन्दुशेखर, परि० सं० २८) इस परिभाषा के अनुसार 'मूलकेनोपदशंम्' यह पूरा समुदाय कृदन्त माना जायगा ।
[लाक्षणिक अर्थवत्ता के प्राधार पर भी समासयुक्त पदों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा उपपन्न नहीं हो पाती ]
किंच समासे शक्त्यस्वीकारे शक्य-सम्बन्ध-रूप- लक्षणाया श्रप्यसम्भवेन लाक्षणिकार्थवत्त्वस्याप्यसम्भवेन सर्वथा प्रातिपदिकत्वाभाव एव निश्चितः स्याद् इति स्वाद्यनुत्पत्तौ " प्रपदं न प्रयुंजीत" इति भाष्यात् समस्त प्रयोगविलयापत्तेः ।
इसके अतिरिक्त, समास में शक्ति न मानने पर, 'शक्य' (अर्थ) के सम्बन्ध रूप ‘लक्षणा' के भी असम्भव होने के कारण, लाक्षणिक अर्थवत्ता के भी असंभव होने से 'प्रातिपादिक' संज्ञा का प्रभाव ही सर्वथा निश्चित है । इसलिये ( ' प्रातिपदिक' संज्ञा के न होने कारण ) 'सु' प्रादि विभक्तियों के न आने पर, "प्रपद का प्रयोग न करे " इस भाष्य ( के कथन ) से सभी ( समासयुक्त) प्रयोगों का विनाश होने लगेगा |
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ऊपर, "कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र के 'समास' पद को नियामक बताने के लिये समासयुक्त प्रयोगों की सामुदायिक अर्थवत्ता मान कर, जिस प्रकार समस्त पदों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा सिद्ध की गयी उस की आवश्यकता नहीं है । सामुदायिक अर्थवत्ता माने बिना ही, लाक्षणिक अर्थवत्ता के शब्दों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा हो सकती है ।
आधार पर भी तो, समस्त
इस बात का उत्तर इन पंक्तियों में यह दिया गया है कि यदि समासयुक्त समुदाय का अपना कोई विशिष्ट अर्थ है ही नहीं तो फिर वहाँ 'लक्षणा' वृत्ति उपस्थित ही कैसे हो सकती है । 'लक्षणा' की परिभाषा स्वयं नैयायिक ही यह मानते हैं कि " शक्य अर्थात् अभिधा शक्ति से प्रकट होने वाले अर्थ का सम्बन्ध' ही 'लक्षणा' हैं । इसलिये यह शक्य - सम्बन्धरूपा, 'लक्षणा' तब तक उपस्थित नहीं हो सकती जब तक उस पूरे समुदाय का कोई विशिष्ट 'शक्य' ('अभिवा' वृत्ति-जन्य शब्दार्थ ) न माना जाय ।
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