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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा कर देने के बाद भी "तिङ् अतिङः' इस सूत्र की 'उद्देश्यता' का अवच्छेदक धर्म वहाँ बना ही रहता है, अर्थात् वहाँ 'अतिङन्त' पद से परे 'तिङन्त' पद विद्यमान ही रहता है। यह "अतिङन्त' पद से परे 'तिङन्त' पद का होना" ही उस सूत्र का 'उद्देश्यतावच्छेदक धर्म' है। फिर भी इस प्रकार के प्रयोगों को 'अपरिनिष्ठित' नहीं माना जायगा। इसी बात को बताने तथा उसके आधार पर 'देवदत्तो भवति' जैसे प्रयोगों में 'अपरिष्ठितत्व' के निवारण के लिये परिभाषा में 'प्रवृत्त' शब्द रखा गया। _ "स्वरति०' इत्यादि नित्यविधि' इति :-इस पंक्ति में 'परिनिष्ठित' की परिभाषा में विद्यमान 'नित्यविधि' शब्द के प्रयोजन पर विचार किया गया है। यदि कोई सूत्र विकल्प से किसी कार्य को करता है नित्य रूप से कार्य नहीं करता-तो उस सूत्र के उन उदाहरणभूत प्रयोगों को, जिनमें सूत्र प्रवृत्त नहीं हुआ है तथा जो उस सूत्र के "उद्देश्यतावच्छेदक धर्म" से युक्त भी हैं फिर भी, 'अपरिनिष्ठित' नहीं माना जायगा। जैसे-“स्वरति-सूति-सूयति-धून-उदितो वा" यह सूत्र इन निर्दिष्ट धातुओं के 'सेधिता' इत्यादि प्रयोगों में 'इट्' अागाम का विकल्प से विधान करता है। इसलिये जिस पक्ष में सूत्र 'इट' का विधान नहीं करेगा उस पक्ष में 'सेद्धा' इत्यादि प्रयोग बनते हैं। ये प्रयोग सूत्रों की शर्तों से युक्त हैं तथा सूत्र प्रवृत्त भी नहीं हुआ है। फिर भी इन 'सेद्धा' इत्यादि प्रयोगों को 'अपरिनिष्ठित' या 'असाधु' नहीं माना जायगा। इसी बात को बताने के लिये परिभाषा में 'नित्यविधि' शब्द रखा गया है । अभेदपक्षे तु.. पर्यायौ-इस प्रकार 'परिनिष्ठित' की इस परिभाषा के अनुसार अभेदपक्ष में-'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' को अभिन्न मानते हुए-'भू सत्तायाम्' के 'भू' इत्यादि अंश, अर्थवान् नहीं हैं अथवा धातु हैं इसलिये, "अर्थवद् अधातुर् अप्रत्यय: प्रातिपदिकम्” इस सूत्र की 'उद्देश्यता' (विषयता) के 'अवच्छेदक धर्म' (अर्थवत्ता, अधातुता इत्यादि) से रहित होने के कारण, सूत्र के प्रवृत्त न होने पर भी, 'परिनिष्ठित' अथवा 'साधु' ही हैं, 'अपरिनिष्ठित' अथवा असाधु नहीं। इस रूप में परिनिष्ठित' की इस परिभाषा के अनुसार जो शब्द ठीक हैं वे ही 'साधु' हैं अथवा दूसरे शब्दों में 'परिनिष्ठित' तथा 'साधु' ये दोनों शब्द पर्याय हैं । नागेश की इस सारी विवेचना का अभिप्राय यह है कि पदत्व की योग्यता होते हुए भी जिन शब्दों का 'अपद' के रूप में विभक्तिरहित प्रयोग होता है केवल उन्हीं को 'अपद' माना जायगा । 'भू' इत्यादि 'अनुकरण' शब्दों में तो पदत्व की योग्यता है ही नहीं फिर यदि उनका विभक्ति-रहित प्रयोग होता है तो उसे 'अपद' कैसे माना जा सकता है ? [अभेद पक्ष में, 'अनुकरण' तथा 'अनुकार्य' के सर्थथा अभिन्न होने पर, 'अनुकरण'-भूत शब्द से 'अनुकार्य'-भूत शब्द के स्वरूप का ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न का उत्तर] ननु अनुकरणस्य अनुकार्य-स्वरूप-बोधकत्वस्य अभावेन' कथम् अनुकार्य-स्वरूप-प्रीतीतिर इति चेत् ? 'सादृश्याख्य'१. ह., वंमि०-अप्यभावेन । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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