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नामार्थ
३६६ अधातुर् अप्रत्यय: प्रातिपदिकम्" (पा० १.२.४५) सूत्र के 'अधातुः' इस निषेध के अनुसार, 'भू' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा न होने के कारण उससे षष्ठी विभक्ति नहीं आ सकेगी। इस तरह सूत्र का "भुवः' शब्द असाधु बन जायेगा। अत: यह विभक्त्यन्त 'भुवः' प्रयोग इस बात का ज्ञापक है कि 'अनुकार्य' तथा 'अनुकरण' में भिन्नता होती है ।
___ इसी प्रकार "क्षियो दीर्घात्" (पा० ८.२.४६) सूत्र के 'क्षियः' पद में जो पंचमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है वह भी इसी भेद-पक्ष का ही द्योतक है। द्र०"सिद्धाऽत्र विभक्तिः, प्रातिपदिकात् इति । कथं 'प्रातिपदिक'संज्ञा ? 'अर्थवत् प्रातिपदिकम्' इति । ननु च 'अधातुः' इति प्रतिषेधः प्राप्नोति ? नैष धातुः । धातोर् एषोऽनुकरणम्" (महा० ८.२.४६)।
____ इसके अतिरिक्त "मतौ छः सूक्त-साम्नोः ” (पा० ५.२.५६) सूत्र के भाष्य में पतंजलि ने, 'अनुकार्य' तथा 'अनुकरण' के भेद-पक्ष के आधार पर ही, कहा है :--- “योऽसाव आम्नाये 'अस्यवाम'-शब्द: पठ्यते सोऽस्य पदार्थः । किम् पुनर् अन्ये आम्नायशब्दाः , अन्ये इमे ? प्रोम् इत्याह" । पतंजलि के इस कथन का अभिप्राय यह है किजो वेद में 'अस्यवाम' शब्द पठित है वह इस 'अनुकरण'-भूत 'अस्यवाम' शब्द का बाच्यार्थ है तथा वेद (संहिता) में पठित 'अनुकार्य-भूत वे 'अस्यवाम' आदि शब्द अन्य हैं तथा उनके बोधक अनुकरणभूत ये 'अस्यवाम' आदि शब्द अन्य हैं।
अनुकार्याद .... न वा पदत्वम् :--'अनुकार्य से अनुकरण अभिन्न होता है' इस अभेद पक्ष में 'भू सत्तायाम्' इस प्रयोग के 'भू' इस 'अनुकरण'-भूत शब्द की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी। इसका कारण यह है कि वह 'अनुकरण' -भूत शब्द अर्थवान् नहीं है क्योंकि अभेद-पक्ष में 'अनुकरण' शब्द केवल सादृश्यमूलक अभेद के आधार पर 'अनुकार्य' के स्वरूप का बोधक होता है। इसलिये, 'अभिधा' आदि 'वृत्तियों' के द्वारा अर्थोपस्थापक न होने के कारण, 'अनुकरण' शब्द की अर्थवत्ता नहीं है। अर्थवत्ता के अभाव में 'अनुकरण' शब्द की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं हो सकती।
दूसरी बात यह है कि 'अनुकार्य' से सर्वथा अभिन्न होने के कारण 'अनुकरण'भूत 'भू' आदि की 'धातु' संज्ञा हो जाएगी और तब 'अधातुः' इस निषेध से 'अनुकरण' 'भू' शब्द की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी। 'प्रातिपदिक' संज्ञा के अभाव में विभक्तियों के न आने से 'भू' जैसे निर्देश असाधु हो जायेंगे। साथ ही 'सुबन्त' न होने के कारण 'भू सत्तायाम्' इस प्रयोग में 'भू' की 'पद' संज्ञा भी नहीं होगी।
अभेदपक्ष-ज्ञापकस्तु"भवत्येव :-अभेदपक्ष का ज्ञापक है 'भू सत्तायाम्' इत्यादि पाणिनीय धातुपाठ के निर्देश। इनमें 'भू' इत्यादि का विभक्ति-रहित प्रयोग हुआ है। यदि केवल भेदपक्ष ही स्वीकार्य होता तो उपरि प्रदर्शित पद्धति से, 'भू' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा होकर यहाँ प्रथमा विभक्त्यन्त 'भू' का प्रयोग होना चाहिये । परन्तु इस प्रकार के निर्देशों को विभक्ति के अभाव में भी, प्रसाधु इसलिए नहीं माना जाता कि पाणिनि आदि शिष्टों तथा आचार्यों द्वारा ये प्रयुक्त हैं। तुलना करो
अत एव 'गवित्याह', 'भू सत्तायाम्' इतीदृशम् । न प्रातिपदिकं नापि पदं साधु तु तत् स्मृतम् ।।
(वभूसा० पृ० २४४)
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