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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा इत्यभियुक्तोक्तेः । ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वं च द्वे शक्ती तेजसो यथा । तथैव सर्व शब्दानाम् एते पृथग अवस्थिते ।। (वाप० १.५६) विषयत्वम् अनादृत्य शब्दैनार्थः प्रकाश्यते । (वाप० १.५६) इति वाक्यपदीयाच्च । अत एव 'विष्णुम् उच्चारय' इत्यादाव् अर्थोच्चारणासम्भवात् शब्द-प्रतीतिः । शाब्दबोध में शब्द का भी ज्ञान विशेषण रूप से होता है क्योंकि 'युधिष्ठिर आसीत्' (युधिष्ठिर था) इत्यादि प्रयोगों में 'युधिष्ठिर' (इस) शब्द का वाच्यार्थभूत कोई व्यक्ति था यह ज्ञान होता है। तथा "लोक में ऐसा कोई बोध नहीं है जो शब्द का ज्ञान हुए बिना (ही प्रकट) हो जाय। मानों शब्द से अनुविद्ध हो कर ही सभी ज्ञान प्रकट होता है" ऐसा विद्वानों ने कहा है। (इसके अतिरिक्त) "जिस प्रकार प्रकाश की ग्राह यता तथा ग्राहकता ये दो शक्तियां हैं उसी प्रकार सभी शब्दों को ये दो (शक्तियां) पृथक पृथक विद्यमान हैं।" तथा ("ज्ञान की) विषयता को प्रकट किये बिना शब्दों से अर्थ का प्रकाशन नहीं होता" यह वाक्यपदीय से पता लगता है। (शब्द का रूप भी शब्द से भासित होता है) इसीलिये 'विष्णुम् उच्चारय' (विष्णु का जप करो) इत्यादि (प्रयोगों) में अर्थ का उच्चारण असम्भव होने से शब्द (का उच्चारण करना है इस तरह) की प्रतीति होती है । उपर्युक्त पाँच अर्थों के साथ उच्चरित शब्द का एक और भी अर्थ होता है और वह है शब्द का अपना ही रूप अथवा स्वरूप क्योंकि जब भी किसी शब्द से अर्थ का ज्ञान होता है तो अर्थ के ज्ञान से पूर्व शब्द का अपना रूप भी वहां श्रोता को ज्ञात होता है । यदि शब्द का अपना रूप प्रकट न हो तो श्रोता को उस शब्द के अर्थ का ज्ञान हो ही नहीं सकता। इसी कारण, शब्दोच्चारण के पश्चात् भी यदि श्रोता उस शब्द को स्पष्टतया नहीं सुन पाता, अथवा उसे उच्चरित शब्द के स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता, तो वह वक्ता से पूछता है कि 'आप ने क्या कहा है' ? श्रोता का यह प्रश्न ही इस बात का प्रमाण है कि अर्थ ज्ञान में शब्द का अपना रूप निश्चित ही भासित होता है। द्र.-"शब्द-पूर्वको ह्यर्थे सम्प्रत्ययः । आतश्च शब्दपूर्वकः । योऽपि ह्यसाव् आहूयते For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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