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नामार्थ
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बनता है वह वह लिंग उस शब्द का होता है । अभिप्राय यह है कि जिस जिस लिङ्ग के साथ वे लोग शब्द-प्रयोग करते हैं वही वही लिङ्ग उस उस शब्द का निर्धारित हो जाता है।
[संख्या' अथवा 'वचन' भी 'प्रातिपादिक' शब्दों का अर्थ है]
सङ्ख्यापि नामार्थः, विभक्तीनां द्योतकत्वात् । अत एव
"ग्रादिजिटुडवः” (पा० १. ३.५) इति सूत्रे 'यादिः' इति बहुत्वे एकवचनम् । वाच्यत्वेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां
'जसम्' विना नामार्थ-बहुत्व-प्रतीत्यभावापत्तेः । 'संख्या' ('एकवचन', द्विवचन' 'बहवचन') भी 'नाम' (शब्दों) का अर्थ है क्योंकि ('सु' आदि) 'विभक्तियां' ('एकत्वादि' अर्थो का) द्योतन (मात्र) करती हैं (कथन नहीं)। इसीलिये 'प्रादिर् त्रिदुडुवः' इस सूत्र में 'पादिः' इस (पद) में 'बहत्व' के द्योतन के लिये ('बहुवचन' का प्रयोग न करके) 'एकवचन' का प्रयोग किया गया। ('संख्या' अर्थ को) 'विभक्तियों' का वाच्य मानने पर 'अन्वय-व्यतिरेक' के द्वारा 'जस्' (विभक्ति) के बिना ('आदि' इस) 'नाम' (शब्द) के अर्थ में 'बहुत्व' की प्रतीति नहीं होनी चाहिये ।
वैयाकरण 'जाति', 'व्यक्ति' तथा 'लिंग' के साथ साथ 'संख्या', अर्थात् 'एकवचन', 'द्विवचन', 'बहुवचन' रूप अर्थ, को भी 'नाम' (प्रातिपदिक) शब्दों का ही अर्थ मानते हैं। 'सु' आदि 'विभक्तियों' को तो उन उन ‘एकत्व' आदि अर्थों का, उसी प्रकार केवल द्योतक माना जाता है, जिस प्रकार 'प्र' आदि उपसर्गों को विभिन्न धात्वर्थों का द्योतकमात्र माना जाता है। इस प्रकार. 'विभक्तियां' संख्या का केवल द्योतनमात्र करती हैं। इसलिये, कभी कभी इन 'विभक्तियों' के प्रयोग के बिना भी 'एकत्व' आदि अर्थों की प्रतीति सीधे शब्द से ही हो जाया करती है। जैसे- 'दधि', 'मधु' इत्यादि प्रयोगों में 'विभक्ति' के प्रयोग के बिना ही 'एकत्व' अर्थ का ज्ञान हो जाता है। यह नहीं कहा जा सकता कि व्याकरण के सूत्रों द्वारा लुप्त 'विभक्तियों' के स्मरण से 'संख्या' का ज्ञान होता है क्योंकि जिन्हें विभक्ति' के लोप अादि की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं है उन्हें भी इस तरह के प्रयोगों से 'एकत्व' आदि 'संख्या' का ज्ञान होता ही है।
इसीलिये पाणिनि के "प्रादिजिटुडवः" (पा० १. ३. ५) इस सूत्र में 'बहुवचन' के अर्थ में एकवचनान्त 'आदिः' शब्द का प्रयोग सुसङ्गत होता है। यदि यह माना जाय कि 'बहुत्व'रूप अर्थ 'जस्' विभक्ति का अपना वाच्य अर्थ है तो इसका अभिप्राय यह हुआ कि जब 'जस्' विभक्ति का प्रयोग किया जाए तभी 'बहुत्व' अर्थ की प्रतीति हो तथा 'जस्' के प्रयोग न होने पर उस अर्थ की प्रतीति न हो । इस प्रकार के क्रमशः 'अन्वय' (जिसके होने पर जो हो-'यत्-सत्त्वे यत्-सत्त्वम्) तथा 'व्यतिरेक' (जिसके न होने पर जो न हो-'यद्-अभावे यद्-अभावः') के आधार पर पाणिनि के "प्रादिबिंदुडवः" सूत्र में भी, 'जस्' विभक्ति के प्रयोग के अभाव में 'बहुत्व' अर्थ की प्रतीति नहीं होनी चाहिये।
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