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कारक - निरूपण
१.
२.
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इति विवक्षायां राजशब्दाद एव पष्ठी, "प्रकृत्यर्थप्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यम्" इति व्युत्पत्यनुरोधात् । ग्रन्यथा तद् - विवक्षायां 'राजा पुरुषस्य' इति पुरुषशब्दात् पष्ठ्यां पुरुषार्थं प्रति षष्ठ्यर्थं स्य विशेषरण - त्वापत्त्या व्युत्पत्तिभङ गापत्तेः । अत एव ग्राह :भेद्य-भेदकयोश्चक-सम्बन्धोऽन्योऽन्यम् इष्यते । द्विष्ठो यद्यपि सम्बन्धः षष्ठ्युत्पत्तिस्तु भेदकात् । इति । 'भेदक:' सम्बन्ध-निरूपकः । 'भेद्यः'निरूपित सम्बन्धाश्रयः । इति षट् कारकारिण ।
('स्व-स्वामि-भाव' रूप ) सम्बन्ध के ( राजा तथा पुरुष ) दोनों में स्थित होने के काररण ('राज्ञः पुरुषः ' इस प्रयोग के) 'पुरुष' शब्द से भी षष्ठी विभक्ति) होनी चाहिये - यदि यह कहा जाय तो वह उचित नहीं है क्योंकि “प्रकृत्यर्थ तथा प्रत्ययार्थ में प्रत्ययार्थ की ही प्रधानता होती है" इस व्युत्पत्ति (न्याय) के अनुरोध से 'राजा का सम्बन्धी पुरुष' इस प्रकार की विवक्षा होने पर 'राजा' शब्द से ही षष्ठी (विभक्ति) होगी ('पुरुष' शब्द से नहीं) । ग्रन्यथा ( यदि 'पुरुष' शब्द से भी षष्ठी विभक्ति होती है तो उस ('राजा सन्बन्धी पुरुष' इस अर्थ ) की विवक्षा होने पर 'राजा पुरुषस्य ' ( पुरुष का राजा ) इस (वाक्य) में 'पुरुष' शब्द से षष्ठी विभक्ति के ( प्रयुक्त) होने से, 'पुरुष' (शब्द) अर्थ के प्रति षष्ठ्यर्थ (सम्बन्ध ) के विशेषण होने के कारण, ( उपर्युक्त) व्युत्पत्ति से विरोध होता है । इसीलिये कहते हैं :
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भेद्य ( विशेष्य) तथा भेदक (विशेषण) दोनों में परस्पर एक ही सम्बन्ध अभीष्ट है । यद्यपि सम्बन्ध दोनों में रहता है परन्तु भेदक (विशेषक) शब्द से ही पष्ठी (विभक्ति) की उत्पत्ति होती है ।
यहाँ (कारिका में ) 'भेदक' (का अभिप्राय) है सम्बन्ध का ज्ञापक (प्रतियोगी या विशेषरण ) । 'भेद्य' ( का अभिप्राय ) है ज्ञापित सम्बन्ध का आश्रय (अनुयोगी या विशेष्य ) ।
यह ६ 'कारकों' विषयक विवेचन समाप्त हुआ ।
यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि राजा तथा पुरुष में जो 'स्व-स्वामि-भाव' सम्बन्ध है वह राजा तथा पुरुष दोनों में है, क्योंकि सम्बन्ध सदा ही दो में रहा करता है । एक सम्बन्ध का 'प्रतियोगी' होता है तो दूसरा उसका 'अनुयोगी', एक का सम्बन्ध होता है तो दुसरे में सम्बन्ध होता है । यहाँ 'राजा' सम्बन्ध का 'प्रतियोगी' है तथा पुरुष ‘अनुयोगी' । इसलिये, जब सम्बन्ध दोनों में ही रहता है तो, केवल 'राजन्' ह० --- तद्व्युत्पत्ति ।
ह०
एव ।
प्रकाशित संस्करणों में 'निरूपित' नहीं है । ह० (२) में 'तन्निरुपित' -पाठ है ।
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