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कारक-निरूपण
जिस क्रिया के देश अथवा काल श्रोता को निश्चित रूप से ज्ञात हैं उस क्रिया का निर्देश करते हुए जब यह कहा जाता है कि दूसरी क्रिया भी उसी समय हुई तो श्रोता को उस दूसरी क्रिया के, जिस के स्थान अथवा काल का उसे ज्ञान नहीं है, स्थान या काल का अनुमान हो जाता है। यही क्रिया की 'लक्षणता' है। द्र०-"लक्षणशब्द: क्रियानिमित्त कः- लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । यच्च निर्घातकालं हवनादिकम् अनितिकालस्य सकृद् अपि काल-परिच्छेद-निमित्तं भवति तत् तस्य लक्षणम्' (महा० प्रदीप टीका २.५.३७)।
यहाँ 'अनिीतकालिकाया:' तथा 'निीतकालिका' इन दोनों स्थलों में 'काल' शब्द 'देश' (स्थान) का भी उपलक्षण है। काल का उदाहरण है-- 'गोषु दुह्यमानासु गतः' इत्यादि । देश या स्थान का उदाहरण है-'गुगो द्रव्यत्वम् अस्ति' इत्यादि । द्र०-"नितिदेश-काल-क्रिया अनिति-देश-काल-क्रियायाः सम्बन्धि-देश-काल-परिच्छेदकत्वेन लक्षणम् इति बोध्यम्” (लघुमंजूषा पृ० १३३१) ।
[षष्ठी विभक्ति का अर्थ]
कारक-प्रातिपदिकार्थ-व्यतिरिक्तः स्व-स्वामि-भावादिः सम्बन्धः षष्ठया वाच्यः । तत्र 'राज्ञः पुरुषः' इत्यादौ षष्ठी-वाच्य-सम्बन्धस्य प्राश्रयाश्रयि-भाव-सम्बन्धेन पुरुषेऽ
न्वयः। 'राज-निरूपित-सम्बन्धवान् पुरुषः' इति बोधात् । 'कारक' तथा 'प्रातिपदिकार्थ' से अतिरिक्त 'स्व-स्वामि-भाव' आदि सम्बन्ध षष्ठी (विभक्ति) का अर्थ है। वहाँ ‘राज्ञः पुरुषः' (राजा का प्रादमी) इत्यादि (प्रयोगों) में षष्टी (विभक्ति) के वाच्य (अर्थ) 'सम्बन्ध' ('स्व-स्वामिभाव') का पुरुष में 'आश्रयाश्रयिभाव' से अन्वय होता है क्योंकि ('राज्ञःपुरुषः' इस प्रयोग से) 'राजा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष' यह बोध होता है ।
प्राचार्य पाणिनि ने “षष्ठी शेषे” (पा० २.३.५०) सूत्र के द्वारा षष्ठी विभक्ति का विधान किया है। इस सूत्र में 'शेष' शब्द से, पहले विहित 'कारकार्थ' तथा 'प्रातिपदिकार्थ' से अतिरिक्त, स्व-स्वामि-भाव' प्रादि सम्बन्ध हो अभिप्रेत हैं । इसीलिये पतंजलि ने इस सूत्र के भाष्य (२.३.५० पृ० ३०८) में कहा-"कर्मादिभ्यो येऽन्येऽर्थाः स शेषः" । यहाँ पतंजलि के 'कर्मादि' शब्द में 'कम' आदि 'कारक' तथा 'प्रातिपदिकार्थ' दोनों ही अर्थ सङ्ग्रहीत हैं। इसलिये ये 'स्व-स्वामि-भाव' आदि सम्बन्ध ही षष्ठी विभक्ति के वाच्य अर्थ हैं। तुलना करो-“कर्मादिभ्योऽन्यः प्रातिपदिकार्थ-व्यतिरिक्तः स्व-स्वामि-सम्बन्धादि: शेषः” (काशिका २.३.५०) । उदाहरण के लिये 'राज्ञः पुरुषः' इस प्रयोग में 'राजा' शब्द के साथ जो षष्ठी विभक्ति आयी है उसका वाच्यार्थ है 'राजा का', अर्थात् 'राजा रूप स्वामी का स्वम्' (सम्पत्ति), अथवा 'स्व-स्वामि-भाव-सम्बन्ध'। यहाँ 'सम्बन्ध' पुरुष में आश्रित है। इसलिये 'राज्ञः पुरुषः' का अर्थ है-'राजा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष', अर्थात् 'राजा रूप स्वामी की पुरुष रूप सम्पत्ति' । ___इस विषय को स्पष्ट करने के लिये महाभाष्य (२.३.५०) में यह प्रश्न किया गया है कि 'कारक' तथा 'प्रातिपदिकार्थ' से भिन्न या अतिरिक्त तो कोई विषय होता ही नहीं।
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