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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा उत्पन्न तथा प्रकृत 'पत्' धातु के अवाच्यभूत विभाग रूप ‘प.ल') का आश्रय होने के कारण 'पर्ण' की भी 'अपादान' संज्ञा प्राप्त होती है क्योंकि विभाग ('वृक्ष' तथा 'पर्ण') दोनों में रहता है। यदि यह कहा जाय तो वह उचित नहीं है। (अष्टाध्यायी में 'अपादान' संज्ञा की अपेक्षा) बाद में होने वाली 'कर्तृ' संज्ञा के द्वारा ('पर्ण' में 'अपादान' संज्ञा की प्राप्ति का) बाधन हो जायगा। इसीलिये 'अपादानम् उत्तरारिण कारकारिण बाधन्ते" (बाद में विहित 'कारक' 'अपादान' कारक के बाधक होते हैं) यह भाष्य का कथन सुसङ्गत होता है।
ऊपर जो 'अपादान' कारक की परिभाषा दी गयी है उसमें, पूर्वपक्ष के रूप में, यह 'अतिव्याप्ति' दोष दिखाया जा रहा है कि 'वृक्षात् पर्ण पतति' जैसे प्रयोगों में 'पर्ण' में भी 'अपादान' संज्ञा की अनिष्ट प्राप्ति होगी क्योंकि जिस प्रकार पर्ण रूप 'कर्ता' में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली पतन क्रिया से उत्पन्न विभाग रूप फल' का, जो प्रकृत 'पत्' धातु का वाच्य अर्थ नहीं है, आश्रय वृक्ष है उसी प्रकार स्वयं 'पर्ण' भी उस विभाग का आश्रय है । 'वृक्ष' तथा 'पर्ण' में दोनों में विभाग की सत्ता इसलिए मानी जाती है कि विभाग अथवा संयोग सदा ही दो वस्तुनों में होता हे।
___ इस 'अतिव्याप्ति' दोष का उत्तर यहां यह दिया गया है कि यह तो ठीक है 'पर्ण' में भी 'वृक्ष' के समान ही, 'अपादान' संज्ञा की प्राप्ति होती है। परन्तु, प्रकृत 'पत्' धातु के अर्थ पतन 'व्यापार' का प्राश्रय भी पर्ण है इसलिये, पर्ण की 'कर्तृ' संज्ञा भी प्राप्त होती है। इस प्रकार दोनों संज्ञानों की प्राप्ति में "विप्रतिषेधे परम्” (पा० १.४.२) सूत्र के अनुसार 'कर्तृ' संज्ञा को ही विशेष बलवान् माना जाएगा क्योंकि अष्टाध्यायी के 'कारक'-प्रकरण में 'अपादान' संज्ञा के विधायक "ध्र वम् अपाये अपादानम्" (पा० १.४.२४) आदि सूत्रों के बाद 'कर्तृ' संज्ञा का विधान करने वाले सूत्रों को रखा गया है। 'पर' अर्थात् बाद में विहित कारकों को बलवान् मानने पर ही भाष्य में पतंजलि का "अपादानम् उत्तराणि कारकाणि बाधन्ते"- अर्थात् बाद में विहित 'कर्ता', 'कर्म' आदि कारक 'अपादान' कारक के बाधक होते हैं । यह कथन सुसङ्गत होता है।
['अपादान' कारक की एक दूसरी परिभाषा का विवेचन]
यत्त केचिद्- “गत्यनाविष्टत्वे सति तज्जन्य-विभागागाश्रयत्वम्” इति तन्न । तत्-तद्-वाक्ये मेषाश्वयोर्
अपादानत्वानापत्तः । कुछ (प्राचार्य) जो यह कहते हैं कि “गति (क्रिया) का प्राश्रय न होते हुए उस (क्रिया) से उत्पाद्य विभाग का आश्रय बनना 'अपादानता' है"--वह (कथन) ठीक नहीं है क्योंकि ('परस्परस्मान् मेषाव् अपसरतः' तथा 'पर्वतात्
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