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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक-निरूपण न। दानकर्मणो गवादेाह्मणार्थत्वेऽपि दानक्रियायाः परलोकार्थत्वात् । अत एव "तादर्थ्यचतुर्थ्यां दानकर्मणो गवादेः सम्प्रदानार्थत्वेऽपि दानक्रियायास्तदर्थत्वाभावेन चतुर्थ्यन्तार्थस्य दान - क्रियायामन्वयानापत्त्या कारकत्वानापत्तिः” इति हेलाराजः। उपकार्योपकारकत्वसम्बन्धस्तादर्थ्य चतुर्थ्यर्थः । 'ब्राह्मणाय दधि' इत्यादौ 'ब्राह्मणोपकारकं दधि' इति बोधाद् इति दिक् । दान आदि उस ('सम्प्रदान' या 'उद्देश्य') के लिये होते हैं, इसलिये "चतर्थी विधाने तादर्थ्य उपसङ्ख्यानम्" (महा० २.३.१३) इस वार्तिक से विहित 'तादर्थ्य' में होने वाली चतुर्थी से ही (चतुर्थी विभक्ति के विधान रूप कार्य की) सिद्धि हो जाने पर “कर्मणा यम्" इस (सूत्र) से 'सम्प्रदान' संज्ञा (के विधान) की क्या आवश्यकता ? "चतुर्थी सम्प्रदाने" यह सूत्र तो (इसलिये अनावश्यक नहीं है कि वह) "रुच्यर्थानां प्रीयमाणः" इस (सूत्र से विहित 'सम्प्रदान' के) विषय में चतुर्थी विभक्ति (के विधान) के लिये है । यदि यह कहा जाय तो? वह उचित नहीं है क्योंकि ('ब्राह्मणेभ्यो' गां ददाति' जैसे प्रयोगों में) दान (क्रिया) के कर्म गौ आदि के ब्राह्मणार्थ होते हुए भी दान क्रिया (ब्राह्मण के लिये न होकर) परलोक को प्राप्ति के लिये है । इसीलिये"तादर्थ्य' में विहित चतुर्थी (विभक्ति) में दान क्रिया के 'कर्म' गो आदि के 'सम्प्रदान' के लिये होने पर भी, दान क्रिया उस ('सम्प्रदान') के लिये नहीं है । इसलिये, चतुर्थ्यन्त (शब्द 'ब्राह्मण' आदि) के अर्थ (ब्राह्मण आदि) का दान क्रिया में अन्वय न होने के कारण, 'कारक' संज्ञा की उपपत्ति नहीं होती"-यह (वाक्यपदीय के टीकाकार) हेलाराज का कथन है। 'तादर्थ्य' में विहित चतुर्थी विभक्ति का अर्थ है 'उपकार्य एवं उपकारक' रूप सम्बन्ध, क्योंकि 'ब्राह्मणाय दधि' (ब्राह्मण के लिये दही) इत्यादि (प्रयोगों) में 'ब्राह्मण का उपकारक दही' यह ज्ञान होता है । १. तुलना करो-- वाप० हेलाराज टीका ३.७.१२६; ननु च दानस्य तदर्थत्वात् तादर्थं चतुर्थी-प्रयोगात किमर्थ सम्प्रदान संज्ञा? नैतन्यायम् । दानक्रियार्थ हि सम्प्रदानम्, न तु दानक्रिया तदर्था, कारकारणां क्रियार्थत्वात् । सम्प्रदानार्थं तु दीयमानं कर्म, इति वाक्यार्थभूताया दानक्रियाया अतादार्थ्यात्, तादर्थ्य चतुर्थ्या अप्राप्तौ तदर्था सम्प्रदानसंज्ञा न्याय्या। तथा-शब्देन्दुशेखर, गुरुप्रसाद शास्त्री सम्पादित, पृ०७१८-१६% न च दानादीनां तदर्थत्वात् तादर्थ्यचतुर्थंव सिद्ध किमनया संज्ञयेति वाच्यम् । “दाशगोध्नौ सम्प्रदाने" इत्यर्थत्वात् तत्सप्रदानकं दानम् इति बोधार्थं तदावश्यकत्वाच्च । अत एव तादथ्यचतुथ्यां दान कर्मणो गवादे: सम्प्रदानार्थत्वेऽपि दानक्रियायास्तदर्थत्वाभावेन चतुर्दान्तार्थस्य दानक्रियान्वयानापत्तिः । २. निस०, काप्रशु०-तादर्थ्यार्थः । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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