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कारक - निरूपण
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को 'कर्मक' मानने पर 'पर्ण वृक्षाद् भूमि पतति' प्रयोग ही साधु होगा न कि 'प
वृक्षाद् भूमौ पतति' |
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ननु
"
इत्याहु: - इस चतुर्थ परिभाषा में "व्यापारानधिकरणत्वे सति" इतना विशेषरण और जोड़ा जाता है । अतः इस परिभाषा का स्वरूप है " व्यापार' का अधिकरण न होते हुए जो धात्वर्थ - ( 'फल' ) से युक्त हो वह 'कर्म कारक' इस विशेषरण के जोड़ देने के कारण 'चैत्रश्चेत्रं गच्छति' जैसे अनिष्ट प्रयोगों का निवारण हो जायगा, क्योंकि वहाँ स्वयं चैत्र ही गमन 'व्यापार' का अधिकरण है । इस प्रसङ्ग लघुमंजूषा में 'पर- समवेत क्रिया- जन्य धात्वर्थ-फलाश्रयत्वं कर्मत्वम् । 'परसमवेत' इति विशेषणात् 'चैत्रश्चैत्रं गच्छति' इति न प्रयोग : " ( पृ १३२२) ये वाक्य मिलते हैं । 'परसमवेत ' इस विशेषण के द्वारा भी उसी प्रयोजन की सिद्धि होती है जिसकी सिद्धि 'व्यापारानधिकरणात्व' विशेषण द्वारा यहां की गयी क्योंकि 'परसमवेत' का अभिप्राय है 'कर्म' से भिन्न 'कारक' में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली (क्रिया)। क्रिया 'चैत्र' रूप 'कर्म' में ही 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है इसलिये 'परसमवेत' विशेषरण से भी 'चैत्रश्चेत्रं गच्छति' प्रयोग का निवारण हो जाता है ।
[ नैयायिकों द्वारा 'कर्म कारक की परिभाषा के रूप में स्वीकृत सिद्धान्तभूत उपर्युक्त चतुर्थ मत का खण्डन ] --
तन्न । 'काशीं गच्छन् पथि मृत:' इत्यादौ काश्याः, ' 'काशीं गच्छति न प्रयागम्' इत्यादौ प्रयागस्य, 'ग्रामं न गच्छति' इत्यादौ ग्रामस्य च तादृश-फल-शालित्वाभावाद् एतस्य लक्षणस्य ग्रत्र सर्वत्र प्रतिव्याप्तेः ।
वह ( नैयायिकों का कथन ) उचित नहीं है क्योंकि 'काशीं गच्छन् पथिमृतः' (काशी जाते हुए रास्ते में मर गया) इत्यादि (प्रयोगों) में 'काशी' में, 'काशीं गच्छति न प्रयागम् ' ( काशी को जाता है प्रयाग को नहीं ) इत्यादि (प्रयोगों) में 'प्रयाग' में तथा 'ग्रामं न गच्छति' (गांव को नहीं जाता ) इत्यादि (प्रयोगों) में 'ग्राम' में, उस प्रकार के ( धात्वर्थरूप ) 'फल' की श्राश्रयता के न होने के कारण इस लक्षरण की यहाँ सर्वत्र ( उपर्युक्त प्रयोगों तथा तत्सदृश प्रयोगों में) 'व्याप्ति' है ।
१. ह० तथा वंमि० में अनुपलब्ध ।
२.
६० में अनुपलब्ध |
व्याख्या : - नयायिकों की इस चतुर्थ परिभाषा को भी दोषरहित इसलिये नहीं माना जा सकता कि 'काशी' गच्छन् पथि मृतः', 'काशीं गच्छति न प्रयागम् ' तथा 'ग्रामं न गच्छति' इन प्रयोगों में क्रमश: 'काशी', 'प्रयाग' तथा 'ग्राम' की 'कर्म' संज्ञा, इस लक्षण के द्वारा, नहीं हो सकती क्योंकि ये सभी धात्वर्थभूत 'फल' अर्थात् 'संयोग' के
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