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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
पचति' इत्यादि प्रयोगा व्याख्याताः । यत्र तु ताड़नादिना पराधीनतया विषभोजनादिकं तत्र विषादि तादृशफलाश्रयत्वेन, उद्देश्यमेव । ग्रत एव " प्रातश्च विषमीप्सितं यद् भक्षयति ताड़नात्" इति भाष्यं सङ्गच्छते । एतेन 'कशाभिहितः कारागारं गच्छति' इति व्याख्यातम् ।
इस परिभाषा से अन्य कर्म को करते हुए चैत्र के विषय में 'क्या गांव जाता है अथवा चावल पकाता है' यह पूछने पर 'न ग्रांमं गच्छति न श्रोदनं पचति' (न गांव जाता है न चावल पकाता है)' इत्यादि प्रयोगों की व्याख्या ( अर्थात् - ग्राम और तण्डुल के 'कर्मत्व' की सिद्धि) हो जाती है । परन्तु जहाँ मारपीट आदि के द्वारा विवशता से विष भोजन प्रादि ( किया जाता ) है वहाँ विष प्रदि, उस प्रकार के 'फल' का प्राश्रय होने के कारण, उद्देश्य हैं (प्रतः वहाँ 'योग्यताविशेष' के प्रश्रय की प्रावश्यकता नहीं है ) । इसलिये "अवश्य ही विष अभीष्ट है क्योंकि मार के भय से उसे खाता है" यह भाष्य ( में पतंजलि ) का कथन सुसङ्गत होता है । इस (कथन) से कराया अभिहतः कारागारं गच्छति' (कोड़े से मारा हुआ जेल जाता है) यह (प्रयोग) स्पष्ट हो गया ।
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ऊपर 'कर्मत्व' की परिभाषा में, 'ईप्सिततम' पद में 'लक्षरणा' वृत्ति मानते हुए, 'योग्यताविशेषशालित्वम्' पद का जो संयोजन किया गया उसके द्वारा ही, 'चैत्र: न ग्रामं गच्छति न प्रोदनं पचति' इत्यादि प्रयोगों में 'ग्राम' तथा 'प्रोदन' पदों में उद्देश्य बनने के 'योग्यता विशेष' के रहने के कारण, 'ग्राम' तथा 'प्रोदन जैसे शब्दों की कर्मता सिद्ध हो जाती है । परन्तु जब कोई व्यक्ति मार या पीड़ा के भय से विष खाता है या कोड़े से मारा जाता हुआ जेल जाता है तो वहाँ 'योग्यताविशेष - शालिता' का आधार लिये बिना ही, 'विष' या 'कारागार' जैसे शब्दों की 'कर्म' संज्ञा सिद्ध हो जाएगी क्योंकि वहाँ कर्ता का उद्देश्य 'विष' अथवा जेल ही होता है। पतंजलि ने भी ऐसे स्थलों में 'विष' आदि को ही 'उद्देश्य' माना है, यह उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है ।
[ 'योग्यता विशेषशालित्वम्' में 'विशेष' पद का प्रयोजन ]
१.
२.
कालत्रये काशी- गमन-शून्ये चैत्रे 'काशीं गच्छति चैत्रः ' इति वारणाय 'विशेष' इति । काश्याः फलाश्रयत्वेन
ह० - विषादेः ।
तुलना करो - महा० १.४.५०;
विषयभक्षणमपि कस्यचिदीप्सितं भवति । कथम् ? इह य एष मनुष्यो दुःखार्तो भवति सोऽन्यानि दुःखानि अनुनिशम्य विषभक्षणमेव ज्यायो मन्यते । आतश्च ईप्सितं यत्तद् भक्षयति । ह० में 'कालत्रय' पाठ है ।
३.
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