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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
'विभाग' रूप फल 'ग्राम' में रहता है। परन्तु 'ग्रामाद विभजते' इत्यादि प्रयोगों में 'अनुयोगित्वविशिष्ट समवाय' सम्बन्ध 'फलता' का अवच्छेदक' है। इसी कारण, दोनों 'त्यज्' तथा 'विभज् धातुओं के' विभाग रूप एक 'फल' के वाचक होने पर भी, 'ग्राम त्यजति' के समान 'प्रामाद् विभजते' इस प्रयोग में, 'फलता' के 'अवच्छेदक' सम्बन्ध के भिन्न होने से, 'ग्राम' की कर्म' संज्ञा नहीं हुई। इसी प्रकार 'प्रयागात् काशीं गच्छति' इस प्रयोग में 'फलतावच्छेदक', अर्थात् 'अनुयोगित्वविशिष्ट समवाय', सम्बन्ध से संयोग रूप 'फल' का प्राश्रय काशी है न कि प्रयाग। इस कारण प्रयाग की 'कर्म' संज्ञा नहीं होती।
['कर्म' संज्ञा की परिभाषा के 'उद्देश्यत्व' पद के विषय में विचार
ननु 'प्रकृत-धात्वर्थ'-ग्रहरणेनैव अत्र वारणाद् ‘उद्देश्यत्व'निवेश: किमर्थ इति चेत् ? न । तस्य असाधारणं प्रयोजनं 'काशी गच्छन् पथि मतः' इति काश्या: फला'श्रयत्वाभावेऽपि फलाश्रयत्वेन उद्देश्यत्व-सत्त्वात् कर्मत्वम् ।
'प्रकृत-धात्वर्थ' (इस अंश) के ग्रहण से ही यहां ('प्रयागात् काशीं गच्छति' इत्यादि प्रयोगों में 'प्रयाग' जैसे शब्दों के 'कर्मत्व' का) निवारण हो जाने के कारण (लक्षण में) 'उद्देश्यत्व' (पद) का प्रवेश किसलिये है ? यदि यह कहा जाय तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि उस ('उद्देश्य' पद) का एक असाधारण प्रयोजन है । 'काशीं गच्छन् पथि मतः' (काशी को जाते हुए रास्ते में मर गया) यहां यद्यपि काशी ('संयोग' रूप) 'फल' का आश्रय नहीं है फिर भी 'फल' की आश्रयता के रूप में (वह काशी) अभीष्ट है इसलिये ('उद्देश्य' होने के कारण) उसकी 'कर्म' संज्ञा हो जाती है।
_ 'कर्मत्व' के लक्षण में विद्यमान 'उद्देश्यत्व' शब्द का विशेष प्रयोजन यह है कि यदि 'कर्म' संज्ञा के लक्षण में 'उद्देश्यत्व' पद न रखा जाय तो जो यात्री काशी जा रहा है परन्तु काशी तक न पहुँच कर रास्ते में ही मर जाता है उसके लिये काशी 'संयोग' रूप 'फल' का आश्रय नहीं बनती। इसलिये प्रकृत धातु के अर्थरूप 'फल' का आश्रय न होने के कारण, काशी की 'कर्म' संज्ञा नहीं हो सकेगी।
परन्तु 'उद्देश्य' पद के निवेश से लक्षण का स्वरूप होगा---'फल' का साक्षात् आश्रय हो चाहे न हो, परन्तु 'फल' के आश्रय के रूप में अभीष्ट होने पर भी 'कारक' की 'कर्म' संज्ञा होगी। अब जो व्यक्ति काशी जाते हुए रास्ते में ही मर जाता है उसके लिये भी 'फल' की प्राश्रयता के रूप में तो 'काशी' अभीष्ट है ही। इसलिये यहाँ भी 'काशी' की 'कर्म' संज्ञा हो जाती है ।
१. ह. में 'फलाश्रयत्वाभावेऽपि' अंश अनुपलब्ध ।
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