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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा अनुकूल 'व्यापार' गौ में होता है। उस (गौ में होने वाले 'व्यापार') का उत्पादक-'च्यापार' गोप में होता है। यहाँ दूध में 'कर्मता' की सिद्धि के लिये 'प्रयोज्यत्व' को (लक्षण में) स्थान दिया गया। 'प्रयोज्यता' (शब्द) की जगह 'जन्यता' (शब्द) को रखने पर वह (पयस्' की 'कर्म' संज्ञा सिद्ध) नहीं होती। 'प्रयागात् काशीं गच्छति' (प्रयाग से काशी जाता है) यहां 'प्रयाग' की 'कर्म' संज्ञा के निवारण के लिये (परिभाषा में) 'प्रकृत-धात्वर्थ-फल' (इतना अंश रखा गया) है। (प्रयाग से काशी जाते समय प्रयाग में होने वाला) विभाग प्रस्तुत (गम्') धातु का अर्थ नहीं है किन्तु अनिवार्य होने के कारण 'गमन' (क्रिया) में वह उत्पन्न हो जाता है । साथ ही प्रयाग ‘फलतावच्छेदक' सम्बन्ध से, 'फल' के आश्रय के रूप में, उद्देश्य भी नहीं है। यहां 'कर्म' कारक की चर्चा करते हुए पहले उसकी परिभाषा दी गई जिसमें यह कहा गया कि जिस धातु का प्रयोग किया जा रहा है, उस प्रस्तुत धातु का जो प्रधानीभूत अर्थ, ('व्यापार' या क्रिया) उससे साक्षात् अथवा परम्परया उत्पाद्य, तथा प्रस्तुत धातु के ही गौरण अर्थ ('फल') के आश्रय के रूप में वक्ता को जो अभीष्ट हो वह 'कर्म' है । धातु के दो अर्थ होते हैं-एक 'व्यापार' अथवा क्रिया तथा दूसरा 'फल'। पहला अर्थ प्रधान है तो दूसरा गौण। इसी कारण यहां 'व्यापार' तथा 'फल' दोनों के साथ 'धात्वर्थ' विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इस परिभाषा के उदाहरण के रूप में 'कुम्भकार: घटं करोति' (कुम्हार घड़ा बनाता है) इस प्रयोग को प्रस्तुत किया जा सकता है। यहां प्रकृत धातु है 'कृ' जिस का प्रधान अर्थ है "उत्पत्ति के अनुकूल होने वाला 'व्यापार"। इस 'व्यापार' से उत्पन्न होने वाला तथा प्रस्तुत धात का गौरण अर्थ है उत्पत्ति रूप 'फल'। इस उत्पत्ति रूप 'फल' के आश्रय के रूप में अभीष्ट वस्तु है 'घट' । इसलिये 'घट' की कर्म संज्ञा है । गां पयो दोन्धि' इत्यादौ "जन्यत्व'-निवेशे तन्न स्यात् – 'कर्म' कारक की उपर्युक्त परिभाषा में 'प्रयोज्य' शब्द का अर्थ है सीधे अथवा परम्परया उत्पन्न होने वाला 'फल' । सामान्तया 'व्यापार' से 'फल' सीधे उत्पन्न हो जाया करता है। इसी कारण 'व्यापार' की परिभाषा की गयी-"धात्वर्थ-फल-जनकत्वे सति धातु-वाच्यत्वम्', अर्थात् धात्वर्थ रूप 'फल' का उत्पादक होते हए जो धातु का वाच्य हो वह 'व्यापार है। परन्तु कभी कभी 'व्यापार' से 'फल' सीधे उत्पन्न न होकर परम्परया उत्पन्न हुआ करता है । जैसे-'गां पयो दोग्धि' (गाय का दूध दुहता है) इस वाक्य में 'दोहन' क्रिया का 'कर्ता' है 'गोप' । यहाँ 'दह' धातु का 'व्यापार' रूप प्रधान अर्थ 'गोप' के द्वारा किया जाने वाला 'दोहन' व्यापार । तथा इस 'दुह' धातु का ‘फलरूप' अर्थ है, गाय से दूध का 'विभाग' अर्थात् अलग होना। इस प्रकार यहाँ गोप के दोहन 'व्यापार' से 'विभाग' रूप 'फल' की सीधे उत्पत्ति नहीं होती अपितु गोप-व्यापार' से गाय में कुछ 'व्यापार' उत्पन्न होते हैं और उस गो-'व्यापार' के द्वारा दूध का गाय से 'विभाग' होता है । इसलिये यदि यहां 'कर्म' की 'परिभाषा' में 'प्रयोज्य' शब्द न रख कर 'जन्य' शब्द का प्रयोग किया गया होता तो परम्परया उत्पन्न जो 'फल' अर्थात् 'विभाग' उसके प्राश्रय दूध की 'कर्म' संज्ञा नहीं हो सकती । क्योंकि 'जन्य' का अर्थ है-साक्षात् उत्पाद्य । 'प्रयोज्य' शब्द उसकी अपेक्षा व्यापक है। 'प्रयोज्य' शब्द के अर्थ की सीमा में प्रधान For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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