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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा
'कर्ता' और 'कारक' ये दोनों शब्द, जो एक ही अर्थ के वाचक हैं, एक साथ ही क्यों प्रयुक्त होते हैं । इस प्रश्न का उत्तर भर्तृहरि ने निम्न कारिका में दिया है :
निष्पत्तिमात्रे कर्तुत्वं सर्वत्रवास्ति कारके । ब्यापार-भेदापेक्षायां करणत्वादिसम्भवः ।।
(वाप० ३.७.१८) अर्थात् जहाँ तक किया की उत्पत्ति मात्र का प्रश्न है सभी 'कारकों' को 'कर्ता' कहा जा सकता है। परन्तु, जब, कौन पकाता है ? किसको पकाता है ? किसके द्वारा पकाता है ? किसमें पकाता है ? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर की दृष्टि से भिन्न भिन्न 'व्यापारों' की भिन्न भिन्न रूप से विवक्षा होती है तब, उन उन 'व्यापारों के आश्रय के रूप में 'कारक' के भी 'कर्ता', 'कर्म', 'करण', 'अधिकरण' ग्रादि रूपों में, विभाग हो जाते हैं।
['कर्तृत्व' को परिभाषा]
तत्र प्रकृत-धातु-वाच्य-व्यापाराश्रयत्वं कर्तुत्वम्, 'धातूनोक्तक्रिये नित्यं कारके कर्तृतेष्यते” इति 'हयुक्तः। अन्यकारक-निष्ठो व्यापारस्तु न प्रकृत-धातु-वाच्यः । यथा 'वह्निना पचति' इत्यत्र वह्निनिष्ठः प्रज्वलनादिः । अन्य-कारक-निष्ठ-व्यापाराश्रयस्य कर्तृत्व-वारणाय धातुवाच्य' इति । तत्र उक्त तु कारकमात्रे प्रथमैव । “ति'ङसमानाधिकरणे प्रथमा", "अभिहिते प्रथमा" (महा०
२. ३.४६) इति वार्तिक-द्वयात् । उन ('कारकों') में 'कर्तृत्व' (का अभिप्राय) है "प्रकृत (उच्चरित) धातु के वाच्यार्थभुत 'व्यापार' का आश्रय बनना"। क्योंकि भर्तृहरि ने कहा है :-. "जिसकी क्रिया (उच्चरित) 'धातु' के द्वारा कह दी गयी है ऐसे 'कारक' में ही नित्य 'कर्तृता' अभीष्ट है'। ('कर्ता' से) अन्य ('कर्म', 'करण' आदि) 'कारकों' में रहने वाले 'व्यापार' प्रकृत धातू के वाच्य नहीं बनते । जैसे 'वह्निना पचति' (आग के द्वारा पकाता है) यहाँ आग में होने वाले प्रज्वलन आदि 'व्यापार' (प्रकृत 'पच्' धातु का वाच्यार्थ नहीं है। ('कर्ता' से) अन्य ('कर्म' आदि) 'कारकों' में होने वाले व्यापार' के आश्रय ('कर्म', 'करण' आदि) में 'कर्तृत्व' १. वैभू० सा० (पृ० १७४) यह कारिकांश 'इति वाक्यपदीयात्' कह कर उद्धृत किया गया है। संभवतः
उसी के अनुकरण पर पलम० के लेखक ने भी यहाँ 'इति हयुक्त:' कहा है। परन्तु भत हरि के वाप० में यह कारिका नहीं मिलती। मीमांसाश्लोकवातिक (चौखम्बा संस्करण), वाक्याधिकरण, श्लोक
संख्या ७१ (पृ० ८६५) में आधे भाग के रूप में यह अंश उपलब्ध है । २. ह० में “अथ तिक"प्रथमा" पाठ है।
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