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सोलह
शृंगवेरपुर के राजा श्रीराम से इन्हें आर्थिक सहायता एवं संरक्षण प्राप्त होता रहा । इस राजा की असाधारण उदारता तथा वीरता का उल्लेख नागेश ने लघुमंजूषा के अन्तिम श्लोकों में किया है। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में नागेश ने सन्यास धारण कर लिया था। कहा जाता है कि जयपुर के राजा जयसिंह वर्मा ने १७१४ ई० में इन्हें अपने अश्वमेध यज्ञ में आमंत्रित किया था। परन्तु क्षेत्र-सन्यासी होने के कारण नागेश ने वहाँ जाना अस्वीकार कर दिया।
विद्या-गुरु-नागेश ने अपने गुरु के रूप में हरि दीक्षित को अनेक बार याद किया है। उनसे नागेश ने पातंजल महाभाष्य आदि अनेक वैयाकरण ग्रन्थों का अध्ययन किया था। हरिदीक्षित ने भी नागेश भट्ट को अपना अन्तेवासी बताया है। ये हरिदीक्षित प्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजिदीक्षित के पौत्र, वीरेश्वर के पुत्र तथा रामाश्रम के शिष्य थे। नागेश ने न्यायदर्शन का विशिष्ट अध्ययन राम भट्ट नामक विद्वान् से किया था।
शिष्य-परम्परा-वैद्यनाथ पायगुण्ड नागेश भट्ट के प्रमुख शिष्यों में माने जाते हैं। इन्होंने महाभाष्यप्रदीपोद्द्योत की छाया नामक व्याख्या तथा वैसिलम० पर कला नामक
१.
द्र०-श्लोक सं० २;
याचकानां कल्पतरोररिकक्षहुताशनात् । शृङ्गवेरपुराधीशाद् रामतो लन्धजीविकः ॥
तुलना करो:-रसगंगाधरमर्मप्रकाशिका के अन्तिम श्लोक;
याचकानां कल्पतरोररिकक्षहुताशनात् । नागेशः शृङ्गवेरेशरामतो लन्धजीविकः॥
२. द्र०-पी०वी० काणे -हिस्टरी आफ धर्मशास्त्र, भा. १, पृ० ४५३-५६ ।
द्र०- सिलम के अन्तिम श्लोक पृ० १५७३ ; अधीत्य फणिभाष्यान्धिं सुधीन्द्रहरिदीक्षितात् । १ (पूर्वार्ध)।
४. द्र०-पी० वी० काणे--हिस्टरी आफ धर्मशास्त्र, भा० १, पादटिप्पण सं० ११४.।
५. शब्दरत्न के प्रारम्भिक श्लोक ;
गुढोक्तिग्रथितां पितामहकृतां विद प्रमोदप्रदां । भक्त्याधीत्य मनोरमां निरुपमाद् रामाश्रमाद् सद्गुरोः ॥ तत्त्वाज्ञानवशात् परेण कलितान् दोषान् समुन्मूलयन् । व्याचष्टे हरिरेष तां फणिमतान्यालोच्य व रेश्वरिः ॥
६. द्र०-वसिलम, अन्तिम श्लोक, पृ० १५७३%
न्यायतन्त्र च रामरामाद् वादिरक्षोध्नरामतः । दृढस्तस्य नाभ्यास इति चिन्त्यं न पण्डितः । हषदोऽपि हि सन्तीः पयोधी रामयोगत:।
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