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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा प्रतियोग्युत्पत्तिकः कालः । तस्य भावः तत्त्वम्' । यहाँ बहुव्रीहि समास में "शेषाद् विभाषा" (पा० ५.४.१५४) सूत्र से 'कप्' प्रत्यय हुआ है। इसी प्रकार 'श्वोभाविनाशके' पद का भी विग्रह है-'श्वोभावी नाशो यस्य स श्वोभाविनाशकः (घट:) तस्मिन् । यहाँ भी बहुव्रीहि समास में ही 'कप्' प्रत्यय मानना चाहिये, अन्यथा 'वुल्' प्रत्यय मानने पर तो कोई संगति नहीं लग सकेगी।
['पक्ष्यति' तथा 'पक्ववान्' इत्यादि प्रयोगों के अर्थ के विषय में विचार]
'पक्ष्यति' इत्यादौ प्राद्य-पाक-व्यक्ति-प्रागभाव-गर्भमेव भविष्यत्त्वम् । 'पक्ववान्' इत्यादौ चरम-पाक-व्यक्तिध्वंस-गर्भम् एव भूतत्वं भासते । तत्तत्समभिव्याहारस्य तादृशबोधे हेतुत्वात् । तेन पाकमध्ये कस्याश्चित् पाकव्यक्त र् अनुत्पादेऽपि कस्याश्चिद् अतीतत्वेऽपि न 'पक्ष्यति', 'पक्ववान्' इत्यादि-प्रयोगः ।
'पक्ष्यति' (पकावेगा) इत्यादि (प्रयोगों) में (सबसे) पहले होने वाली पाक (की अवान्तर क्रियारूप) व्यक्ति का ही प्रागभाव जिसमें समाविष्ट है ऐसे 'भविष्यत्' काल का (ज्ञान होता है) तथा 'पक्ववान्' (पकाया) इत्यादि (भूतकालिक प्रयोगों) में (सबसे) अन्त में होने वाली पाक (की अवान्तर क्रियारूप) व्यक्ति की ही समाप्ति समाविष्ट है जिसमें ऐसे 'भूत' काल का ज्ञान होता है क्योंकि वे वे ('पक्ष्यति', 'पक्ववान्' इत्यादि), समुदाय उस प्रकार के ज्ञान के कारण हैं। इसलिये (पूरी) 'पाक' (क्रिया) के मध्य में किसी (अवान्तर क्रियारूप) पाक-व्यक्ति के उत्पन्न न होने पर भी (किसी अवान्तर क्रिया के भविष्यत्काल में होने पर भी) तथा किसी (अवान्तर क्रिया-रूप पाक व्यक्ति) के अतीत में हो जाने पर भी (क्रमश:) 'पक्ष्यति', 'पक्ववान्' इत्यादि प्रयोग नहीं होते।
[लिङ्' तथा 'लोट् लकार के अर्थ के विषय में विचार
लिङो विधिराशीश्चार्थः । 'यजेत' इत्यादौ विधिः, ग्राशोस्तु 'भूयात्' इत्यादौ । सा च शुभाशंसनं तदिच्छेति यावत् । लोटस्तु विधिरनुमतिर्वा । 'गच्छतु' इत्यत्र 'अनुमतिविषयगमनानुकूल कृतिमान्' इति बोधस्यानुभविकत्वात् ।
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