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लकारार्थ-निर्णय
२८६
वर्तमानकालवृत्तिप्रागभाव-प्रतियोगित्वम्"- (वाक्यवृत्ति से न्यायकोश में उद्धत), अर्थात् वर्तमान काल में रहने वाले 'प्रागभाव' का 'प्रतियोगी' 'भविष्यत्' काल है। इसी प्रकार वैशेषिकोपस्कार में भी कहा गया है--"यत्प्रागभावेन च कालोऽवच्छिद्यते स तस्य भविष्यत् कालः” (न्यायकोश में उद्ध त)।
परन्तु नव्य नैयायिकों को यहां भी 'उत्पत्ति' पद को संयुक्त करने की आवश्यकता प्रतीत हुई क्योंकि उसके बिना लक्षण में 'अतिव्याप्ति' दोष आता है। 'उत्पत्ति' पद के अभाव में 'भविष्यत्' काल की परिभाषा बनेगी-क्रिया का जो वर्तमानकालिक 'प्रागभाव' उसके प्रतियोगी, अर्थात् क्रिया, का प्राश्रयभूत काल 'भविष्यत्' काल है ।” परन्तु 'प्रागभाव' की 'प्रतियोगिनी' क्रिया का प्राश्रयभूत काल तो, जब से उस किया की उत्पत्ति हुई तब से लेकर आगे जब तक वह क्रिया विद्यमान है तब तक का, कोई भी काल हो सकता है । इसलिये कल उत्पन्न होकर परसों प्रांगन में जाने वाले मंत्र के लिये 'परश्वः प्राङ्गणे मैत्रो भविष्यति' प्रयोग भी हो सकता है क्योंकि मैत्र की 'होना'-रूप क्रिया का आश्रयभूत काल 'परसों' भी है ही।
__'उत्पत्ति' पद जोड़ देने के बाद 'भविष्यत्'काल के लक्षण का स्वरूप होगा "वर्तमान कालिक जो प्रागभाव' उसकी 'प्रतियोगिनी', अर्थात् क्रिया की 'उत्पत्ति' का आश्रय भूत काल 'भविष्यत्' काल है", अर्थात् जिस विशिष्ट काल में मैत्र की यह 'उत्पत्ति' होगी उसी काल को 'भविष्यत्' काल माना जायगा, उस उत्पत्ति-काल से बाद वाले काल को नहीं । इसलिये जो मैत्र कल उत्पन्न होगा उसके लिये यही कहा जा सकता है कि 'श्वः मैत्रो भविष्यति', 'परश्वः मैत्रो भविष्यति' जैसे प्रयोग उसके लिये नहीं हो सकते । अथवा परसों प्रांगन में जाने वाले मैत्र के लिये मंत्र: परश्वः प्राङ्गणे गमिष्यति' ही कहा जायगा, 'परश्वो मैत्र: भविष्यति' नहीं, क्योंकि मैत्र का आधार भले ही 'परसों' तथा 'प्राङ्गण' दोनों ही हैं - एक स्थान की दृष्टि से प्राधार है तो दूसरा काल की दृष्टि से-परन्तु क्रिया के उत्पन्न होने का विशिष्ट प्राधार 'परसों' तथा 'प्राङ्गण' नहीं हैं, उसके आधार तो 'श्वः' (कल) तथा 'गृहम्' (घर) ही हैं।
[कुछ अन्य विद्वानों का मत]
केचित्तु देशविशेषः कालविशेषश्च प्रागभावे प्रतियोगिनि चान्वेति । 'परश्वः प्राङ्गणे मैत्रो भविष्यति' इत्यस्य 'परश्वोवृत्ति: प्राङ्गणवृत्तिर्यः प्रागभावस्तत्प्रतियोग्युत्पत्त्याश्रयः परश्वोवृत्ति: प्राङ्गणवृत्तिमैत्रः' इति बोधः । तेन नोक्तातिप्रसंगः । एतेन श्वो भाविनि घटे 'अद्य भविष्यति' इति प्रसङ्गो निरस्त इत्याहुः ।
१. ह०-नोक्तप्रसंगः ।
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