________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८४
वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु मंजूषा 'लङ' (लकार) का वाच्य अर्थ है 'अनद्यतन भूतकाल' तथा 'लङ' (लकार) का तो (अर्थ है) 'भूतसामान्य'। भूतत्व' की परिभाषा है "वर्तमान कालीन विनाश की 'प्रतियोगिनी' (क्रिया) की उत्पति का पाश्रय (अतीत काल)'। केवल "वैसी (वर्तमान कालीन ध्वंस की) 'प्रतियोगिता" ही ('भूतकाल' की) परिभाषा नहीं है क्योंकि ("वर्तमानकालीन ध्वंस की 'प्रतियोगिता” को ही 'भूतकाल' की परिभाषा मानने पर) बहत काल पूर्व उत्पन्न (घट आदि) के लिये भी 'पूर्वेधुर अभवत्' (कल उत्पन्न हुआ) यह (प्रयोग) होने लगेगा । तथा 'नष्ट:' (नष्ट हा) इत्यादि (प्रयोगों) में 'नाश' में उस (वर्तमानकालीन ध्वंस की 'प्रतियोगिता') का अन्वय असम्भव है। (ऊपर की परिभाषा में विद्यमान) उत्पत्ति का तो देश तथा काल के साथ अन्वय होने के कारण ('नष्ट:' इस प्रयोग में) दोष नहीं आता। 'अभवत्' इत्यादि (प्रयोगों) में 'उत्पति (रूप अर्थ) का ज्ञान धातु से होता है। परन्तु 'नष्टः' इत्यादि (प्रयोगों) में वैसो (वर्तमानकालीन ध्वंस की 'प्रतियोगिनी' क्रिया की) 'उत्पति' वाले (देश काल आदि) का ज्ञान प्रत्यय से होता है-इतना अन्तर है।
यहां 'भूतकाल' की परिभाषा के विषय में विचार किया गया है । प्राचीन नैयायिक यह कहते हैं कि 'वर्तमान-ध्वंस-प्रतियोगिता', अर्थात् क्रिया का वर्तमान कालीन जो ध्वंस उसकी 'प्रतियोगिनी' जो क्रिया उसका आश्रयभूत काल हो 'भूत' काल है । जैसे--'घटोऽभवत्'--यहां घड़े की 'उत्पत्ति' रूप क्रिया का वर्तमानकालीन ध्वंस हुआ है । इस ध्वंस की 'प्रतियोगिनी' क्रिया पहले होने वाली घट की 'उत्पत्ति' है । उस 'उत्पत्ति' रूप क्रिया का जो काल वही 'भूत' काल है। द्र०-"वर्तमानध्वंसप्रतियोग्यवच्छिन्न: कालः' (पदार्थमाला) तथा “भूतत्वं च विद्यमानध्वंसप्रतियोगित्वम्” (न्यायसिद्धान्तमंजरी) । इसी बात को वैशेषिक उपस्कार में कुछ भिन्न शब्दों में कहा गया है-“यत्प्रध्वंसेन च कालोऽवच्छिद्यते स तस्य भूतकालः" । (ये तीनों उद्धरण न्यायकोश से लिये गये हैं)।
परन्तु अर्वाचीन नैयायिकों को भूतकाल की इस परिभाषा में अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोष दिखाई देता है। इनका यह कहना है कि यदि 'वर्तमान-ध्वंसप्रतियोगिता' ही 'भूत'काल की परिभाषा मानी गयी तो बहुत पहले उत्पन्न हुए घट के लिये भी 'घट: पूर्वेद्यर अभवत्' (घड़ा कल उत्पन्न हया) यह प्रयोग होने लगेगा क्योंकि घटोत्पत्ति रूप क्रिया का जो वर्तमान-कालिक-विनाश उसका प्रतियोगी-प्रतीत कालिक उत्पत्ति रूप क्रिया-तो है ही । यह अतीत कालिक क्रिया किसी न किसी काल का आश्रयण करेगी। वह आश्रयभूत काल कौन सा माना जाय इस बात का उपर्युक्त परिभाषा में कोई निर्देश नहीं किया गया । इसलिये बहुत पहले का अतीत काल भी उसका प्राश्रय हो सकता है तथा बीता हुआ कल या वर्तमान काल से थोड़ा पहले का काल भी उसका आश्रय हो सकता है। इस आश्रयभूत काल तथा क्रिया के एक होने के कारण बहुत पहले उत्पन्न घड़े के लिये 'पूर्वेधुर् अभवत्' प्रयोग होने लगेगा क्योंकि वर्तमानकालिक ध्वंस की 'प्रतियोगिता' वहां पर भी है । इस प्रकार यहां 'अतिव्याप्ति' दोष है ।
For Private and Personal Use Only