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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लधु-मंजूषा
कुछ पहले हो चुकी होती है । तथा इसी तरह 'कदा गमिष्यसि' (कब जानोगे ?) इस प्रश्न के उत्तर में जब 'एष गच्छामि' (अभी जाता हूँ) कहा जाता है तब वहां 'जाना' क्रिया हो नहीं रही होती, अपितु कहने के बाद होने वाली होती है।
अत: इस वर्तमान के सामीप्य में विहित 'लट्' से जिस काल का ज्ञान होता है उसके निर्देश के लिये "स्वानधिकरण-समीपवर्ती तादृशकालः' कहा गया। यहाँ जो काल अभिप्रेत है वह 'लट्' के उच्चारण का आधारभूत काल नहीं है, अर्थात् उस काल में 'लट्' का उच्चारण नहीं किया जाता । परन्तु प्राधार या अधिकरण न होते हुए भी वह अभिप्रेत काल उच्चारण के अधिकरण काल के आस-पास का ही काल होता है। बहुत अधिक पहले का 'भूत' अथवा बहुत अधिक बाद का ‘भविष्यत्' काल इस 'लट' से कथित नहीं हो सकता। इस तरह अधिकरण न हो कर भी जो, समीपवर्ती होने के कारण, 'वर्तमान' काल के समान है उस आसन्न 'भूत' या 'भविष्य' का बोध वर्तमान-सामीप्य में विहित 'लट्' के द्वारा होता है।
तत्रापि शक्तिलक्षणा वा-- वर्तमान-सामीप्य में विहित इस 'लट् लकार के 'एष जानामि' (अभी जान लेता हूं) जैसे प्रयोगों में 'लट' की 'अभिधा' शक्ति के द्वारा वर्तमान-सामीप्य का बोध तथा 'लक्षणा' के द्वारा 'पाश्रयता' का बोध होगा—यह दूसरी बात है। यहां 'वा' का अर्थ 'समुच्चय' लेना चाहिये, 'विकल्प' नहीं।
[एक ही पद ('लट्') से बोधित 'कृति' तथा 'वर्तमानता' इन दोनों अर्थों में परस्पर अन्वय का प्रकार]
नन्वेकपदोपस्थितयोः कृतिवर्तमानत्वयोः कथं मिथोऽन्वयः? तत्पदजन्यशाब्दबोधे पदान्तरजन्योपस्थितेर्हेतुत्वात् । कार्यतावच्छेदिका च प्रत्यासत्तिः प्रकारता। कारणतावच्छेदिका च विशेष्यतेति। अन्यथा हरिपदार्थयोः दण्डेनेत्यादौ च करणत्वैकत्वयोः मिथोऽन्वयापत्त: । मैवम् । तत्तत्पदान्यत्वस्य उक्तव्युत्पत्तौ प्रवेशात् । कथम् अन्यथा
एवकारार्थयोरन्ययोगव्यवच्छेदयोः मिथोऽन्वयः ? एक पद ('लट') से बोधित 'कृति' तथा 'वर्तमानता' में परस्पर अन्वय किस प्रकार होगा ? क्योंकि उस पद से उत्पन्न 'शाब्दबोध' के प्रति (किसी) अन्य पद से उत्पन्न अर्थ कारण होता है । 'कार्यता' का अवच्छेदक (सम्बन्ध) 'प्रकारता' (विशेषणता) है तथा 'कारणता' का अवच्छेदक (सम्बन्ध) 'विशेष्यता' है। अन्यथा (एक पद से उपस्थापित दो अर्थो में अन्वय स्वीकार कर लेने पर) 'हरि' शब्द के दो अर्थों (अश्व तथा इन्द्र) का (प्राधाराधेयभाव सम्बन्ध से)
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