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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा किया जा सकता है कि 'ज्ञा' आदि धातुओं के साथ प्रयुक्त 'ग्राख्यात' ('लकार') से उत्पन्न, तथा जिसमें 'वर्तमानता' विशेषण है ऐसा (वर्तमानकालिक), ज्ञान 'कार्य' है और इस कार्य के प्रति 'ज्ञा' आदि धातुओं से उत्पन्न ज्ञान या अर्थ 'कारण' है । कार्यताकारतावच्छेदिका- 'कार्य' जिस सम्बन्ध से अपनी उत्पत्ति के स्थान में रहता है उस सम्बन्ध का नाम है 'कार्यतावच्छेदक' । यहां प्राख्यात से उत्पन्न 'वर्तमानकालिक ज्ञान' रूप जो 'कार्य' है वह अपने उत्पत्ति-स्थान ---'व्यापार रूप विषय'--- में 'विषयता' अथवा दूसरे शब्दों में विशेष्यता सम्बन्ध से रहता है। इसलिये यह 'विषयता' सम्बन्ध ही यहाँ 'कार्यतावच्छेदक' सम्बन्ध है । इमी तरह जिस सम्बन्ध से 'कारण' 'कायं' के साथ रहता है उस सम्बन्ध को 'कारणतावच्छेदक' कहा जाता है। यहाँ धातुजन्य ज्ञान 'कारण' है। वह भी 'विषयता' सम्बन्ध से ही 'वर्तमान कालिक ज्ञान' रूप 'कार्य' के साथ रहता है । वर्तमान कालिक ज्ञान रूप 'व्यापार' ('कार्य') है 'विषय' जिसका ऐसा धातुजन्य ज्ञान ('कारण') तथा 'धातुजन्य ज्ञान' है ('कारण') 'विषय' जिसका ऐसा वर्तमान-कालिक ज्ञान ('कार्य') इस प्रकार ‘कार्यतावच्छेदिका' तथा 'कारणतावच्छेदिका' दोनों 'विषयता' ही है। इस तरह 'विषयता' सम्बन्ध से ही 'कार्य' अपने उत्पत्ति स्थान 'व्यापार' में है तथा 'विषयता' सम्बन्ध से ही 'कारण' 'कार्य' में है। यदि यहाँ 'अवच्छेदक' शब्द न रखा जाय, केवल 'कार्यता' तथा 'कारणता' शब्दों का ही प्रयोग किया जाय, तो जिस किसी भी सम्बन्ध से जिसमें 'कारणता' मिलेगी उसके होने पर 'वर्तमानत्व-प्रकारक' बोध (वर्तमान-कालिक ज्ञान) होने लगेगा। और 'कालिक' सम्बन्ध से स्वयं काल अथवा घट आदि कोई भी कारण बन सकता है, इस लिये इस तरह 'कालिक' सम्बन्ध से कारण बनने वाले जिस किसी की भी सत्ता मात्र से ही वर्तमान कालिक ज्ञान का बोध होने लगेगा, जो अभीष्ट नहीं है। इसलिये यहाँ मूल में 'कार्यता' तथा 'कारणता' के साथ 'अबच्छेदक' शब्द जोड़ा गया तथा उसे 'विषयता' से सम्बद्ध कर दिया गया। अब 'काल' या 'घट' प्रादि 'विषयता' सम्बन्ध से 'कारण' नहीं है. इसलिये केवल इनके होने से ही वर्तमान कालिक 'ज्ञान' का बोध नहीं होगा अपितु 'विषयता' सम्बन्ध से उपस्थित होने वाले धातुजन्य ज्ञान के होने पर ही उस प्रकार का बोध होगा । इसलिये 'काल' अथवा 'घट' आदि में अतिव्याप्ति दोष नहीं पाता। यहाँ व्युत्पत्तिवाद के लेखक गदाधरभट्ट ने इतना और कहा है कि यदि ज्ञान आदि से विशिष्ट आश्रयता में 'वर्तमान' काल का सम्बन्ध मान कर इस अतिप्रसक्ति दोष का निवारण किया गया तो भी विशेषणभूत ज्ञान आदि में तो 'वर्तमान' काल का सम्बन्ध अनिवार्यतः मानना ही पड़ता है। इसलिये धात्वर्थ रूप ज्ञान से ही 'वर्तमानता' को सम्बद्ध करना उचित है । द्र०-"व्यापाराबोधकेन च लडादिप्रत्ययेन क्रियायामेव वर्तमानत्वान्वयो बोध्यते जानातीत्यादौ । न तु लडर्थाश्रयत्वादी। ज्ञानाद्यसत्वेऽपि तदाश्रयत्वासम्बन्धे सति जानातीत्यादिप्रयोगापत्तेः । ज्ञानादिविशिष्टे पाश्रयत्वादौ कालान्वयम् उपगम्य अतिप्रसङ्गवारणे विशेषो ज्ञानादावपि तदन्वयस्य आवश्यकत्वे तस्यैव स्वीकारौचित्यात्” । (व्युवा० पृ०, ३४०-३४१) । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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