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लकारार्थ-निर्णय
२०१ यह शाब्दबोध होता है। 'घटं जानाति मैत्रः' (मैत्र घड़े को जानता है) इत्यादि (कर्तृवाच्य के प्रयोगों) में तो विषयता' (विषय होना) द्वितीया (विभक्ति) का अर्थ है तथा आश्रयता ('वृत्ति' अथवा 'तन्निष्ठता') 'पाख्यात' ('लकार') का अर्थ है । “घट विषयक जो ज्ञान उसका आश्रय मैत्र" यह शाब्दबोध होता है।
[काल की दृष्टि से 'लकारों' के भिन्न भिन्न अर्थ]
कालश्चातीत-वर्तमान-अनागतात्मा यथायथं लडादे रर्थः । लटः, 'भवति' इत्यादौ, वर्तमानत्वम्; लङ्-लुङ -लिटाम्'अभवत्', 'अभूत्' 'बभूव इत्यादौ, भूतकालः; लुङ्लुटोः 'भविता', 'भविष्यति' इत्यादौ, भविष्यत् कालः । लिङलोट-लेटाम्,– 'भवेत्', 'भवतु', अग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' इत्यादौ-विधिः । सङ ख्या च केवलार्थः । लेटस्तु छन्दस्येव प्रयोगः । तत्र दीर्घत्वमपि विकल्पेन
'भवति', 'भवाति' इति दर्शनात् । "भूत', 'वर्तमान' (तथा) 'भविष्यत्' रूप काल यथायोग्य 'लट्' आदि 'लकारों' का अर्थ है । 'भवति' इत्यादि (प्रयोगों) में 'लट्' (लकार) का 'वर्तमान' काल; 'अभवत्', 'अभूत' तथा 'बभूव' इत्यादि (प्रयोगों) में (क्रमशः) 'लुङ', 'लङ्' तथा 'लिट्' (लकारों) का 'भूत' काल तथा 'भविता', 'भविष्यति इत्यादि (प्रयोगों) में (क्रमशः) 'लुट' तथा 'लूट' (लकारों) का 'भविष्यत्' काल अर्थ है । 'भवेत्', 'भवतु' तथा 'आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' इत्यादि (प्रयोगों) में (क्रमशः) 'लिङ', 'लोट्' तथा लेट्' (लकारों) का विधि' (प्रवर्तना) अर्थ है। केवल 'संख्या' भी (कहीं कहीं 'लकारों' का) अर्थ होता है। लेट् (लकार) का (केवल) वेद (वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों) में ही प्रयोग होता है । वहाँ ('लेट्' लकार के प्रयोगों में) विकल्प से दीर्घत्व भी होता है क्योंकि 'भवति', 'भवाति' (इस प्रकार के दोनों तरह के प्रयोग) देखे जाते हैं ।
भिन्न भिन्न 'लकारों' के जिन जिन अर्थों का निर्देश किया गया है वे बहुत हो प्रसिद्ध अर्थ हैं तथा प्राचार्य पाणिनि ने भी उन्हीं अर्थों में इन 'लकारों का विधान किया है। 'लेट्' की स्थिति पाणिनि ने भी छन्दस् अर्थात् वेद में ही मानी है । द्र०-, "लिर्थे लेट्" (३.४.७), । 'लेट्' लकार के प्रयोगों में दो प्रकार की स्थिति पायी जाती है-कहीं 'धातु' तथा 'लिङ्' के बीच 'या' पाया जाता है तो कहीं 'अ'। इसीकारण पाणिनि ने "लेटोऽडाटौ' (३.४.६४) सूत्र बनाया। इसी बात को यहाँ 'दीर्घत्व-विकल्प' कह कर संकेतित किया गया है। 'लेट्' के प्रयोगों की कुछ और भी विशेषतायें हैं जिनका निर्देश पाणिनि ने अपने “प्रात ऐ", "वैतोऽन्यत्र", "इतश्च लोपः परस्मैपदेषु" तथा "स उत्तमस्य"
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