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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६८ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा इस विषय में नैयायिकों का उत्तर यह है कि इन प्रयोगों में 'चैत्र' जो 'कर्ता' है उसका तथा 'गन्ता' का और इसी प्रकार 'ग्राम' जो 'कर्म' है उसका तथा 'गत' का 'अभेदान्वय' सम्बन्ध मान कर अर्थ-ज्ञान होता है क्योंकि ऐसे स्थलों पर निम्न परिभाषा उपस्थित हुआ करती है - " समान विभक्तिकनामार्थयोरभेदान्वयः ", अर्थात् समान विभक्ति वाले दो 'प्रातिपदिकार्थी' का अभेद सम्बन्ध से ही ग्रन्वय होता है भेद सम्बन्ध से नहीं । इस अभेदान्वय के कारण इन प्रयोगों में क्रमशः 'कर्ता' तथा 'कर्म' इन प्रत्ययों के वाच्यार्थ बनते हैं । न चैवं "लटः शतशानचौ" ० 'शक्तिः — नैयायिकों के मत में एक प्रश्न और यह उपस्थित होता है कि जब 'लकारों' का अर्थ 'कृति' है तो 'लकार' के स्थान पर आने वाले 'शत्रु', शानच्' प्रत्ययों का वाच्य अर्थ 'कर्ता' क्यों है । इस प्रश्न का उत्तर यहाँ यह दिया गया है कि 'ग्रादेश' में वाचकता 'शक्ति' के प्रभाव की कल्पना उसी स्थिति में की जाती है कि जब 'स्थानी' की वाचकता 'शक्ति' से काम चल जाता हो । जैसे – 'तिङन्त' प्रयोगों में । 'चैत्रः पचन्' इत्यादि 'शतृ' तथा 'शानच्' प्रत्ययान्त शब्दों में दूसरे तरह की स्थिति है। यहां 'पचन्' तथा 'चैत्र:' में, पूर्वोक्त परिभाषा के अनुसार, समान अधिकरणता माने जाने के कारण 'प्रदेशी' अर्थात् 'स्थानी' की वाचकता 'शक्ति' से कार्य नहीं चल पाता क्योंकि वह 'शक्ति' तो 'यत्न' को कहती है, चैत्र को नहीं कहती । इसलिये 'चैत्रः पचन्' इत्यादि प्रयोगों में 'आदेश' में भी वाचकता 'शक्ति' की कल्पना कर लेनी चाहिये । 'आदेश' में विद्यमान यह 'शक्ति' 'कर्ता' को कह सकेगी। ['लव' तथा 'आत्मनेपदत्व' रूप 'शक्तियों में अन्तर ] Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इयांस्तु विशेषः -- लत्वेन यत्ने शक्ति: ग्रात्मनेपदत्वेन फले । 'मैत्रेण गम्यते ग्रामः' इत्यादौ "मैत्रवृत्तिकृतिजन्यगमनजन्य-फलशाली ग्रामः" इत्यन्वयबोधा'त् । कृतिश्चात्र तृतीयार्थ: । जन्यत्वं संसर्गः । मैत्रः कृतौ विशेषणम्, सा च गमने, तच्च फले, तच्च ग्रामे' । इतना अन्तर तो है कि 'यत्न' (को कहने) में (वाचकता शक्ति) 'लत्व' रूप से है तथा 'फल' (को कहने) में 'ग्रात्मनेपदत्व' रूप से क्योंकि 'मैत्रेण गम्यते ग्रामः' (मैत्र के द्वारा गाँव जाया जाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में "मैत्र में रहने वाली 'कृति' (यत्न) से उत्पन्न जो गमन रूप 'व्यापार' उससे उत्पन्न होने वाले (संयोग रूप ) 'फल' का प्राय ग्राम" इस प्रकार का शाब्दबोध होता है । यहाँ 'कृति' ('मैत्र' शब्द में प्रयुक्त) तृतीया विभक्ति का अर्थ है तथा १. ह० में 'अन्वयबोधात्' के स्थान पर केवल 'बोध' पाठ है । २. ह० - वृत्तिश्चात्र । ३. ह० ग्रामे इति । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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