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बैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
प्रवर्तनात्वं च
'इष्टसाधनत्वस्यैव 'प्रवर्तना' शब्द का अभिप्राय है जिसके द्वारा कार्य में व्यक्ति की प्रवृत्ति करायी जाय। 'प्रवत्यंतेऽनया' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यहाँ 'प्र' उपसर्ग से युक्त ण्यन्त 'वृत्' धातु से 'करण' कारक में 'युच्' प्रत्यय माना जा सकता है । इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि " प्रवृत्ति का उत्पादक अथवा कारणभूत जो ज्ञान उस ज्ञान का विषय 'प्रवर्तना' है"। जैसे- 'स्वर्गकामो यजेत' (स्वर्गाभिलाषी यजन करे ) यहाँ 'याग मेरे ग्रभीष्ट स्वर्ग का साधन है' ('यागो मदिष्टसाधनम्') यह ज्ञान ही याग में व्यक्ति की प्रवृत्ति का हेतु है तथा इस ज्ञान का विषय है याग का इष्ट साधन बनना । इसलिये याग विषयक इष्ट साधनता ही यहाँ 'प्रवर्तना' है ।
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इसी अभिप्राय को नागेश ने यहाँ नैयायिकों की भाषा में प्रस्तुत किया है। किसी कार्य में व्यक्ति की प्रवृत्ति का उत्पादक या प्रवर्तक है- 'इदं मद् इष्टसाधनम्' (यह कार्य मेरे अभीष्ट वस्तु का साधन है) यह ज्ञान । जैसे- - ऊपर के उदाहरण - 'स्वर्गकामौ यजेत' -- में 'याग मेरे अभीष्ट स्वर्ग का साधन है' यह ज्ञान । ग्रतः यह ज्ञान प्रवृत्ति का जनक हुआ । इस ज्ञान का विषय है 'याग का इष्टसाधन' होता । 'विषय' में रहने वाले धर्म को 'विषयता' कहते हैं । इस तरह यहाँ रहने वाली जो 'विषयता' है उसका प्रवच्छेar (free or बोधक) हुआ 'इष्टसाधन' । तथा 'ग्रवच्छेदकत्व' हुआ 'इष्टसाधनत्व'रूप 'धर्म' जो इष्टसाधन में रहता है । इस प्रकार 'इष्टसाधनता' को ही 'प्रवर्तनात्व' कहा गया और वह 'इष्टसाधनता' ही 'लिङ' का अर्थ है ।
तदेव लिङर्थ: - 'एव' का प्रयोग यहाँ यह बताने के लिये किया गया है कि वैयाकरण केवल 'इष्टसाधनता' को ही 'लिङ' का अर्थ मानते हैं । वे नैयायिकों के समान ' इष्ट साधनता' के साथ साथ 'कृतिसाध्यता' तथा 'बलवद् ग्रनिष्टाननुबन्धिता' को भी 'लिङ' का अर्थ नहीं मानते । इसी बात को नागेश ने यहाँ आगे की पंक्तियों में स्पष्ट किया है ।
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न तु कृतिसाध्यत्वं लभ्यत्वात् - 'यह कार्य मेरे द्वारा साध्य है, असाध्य नहीं' इस प्रकार का ' कृतिसाध्यता' का ज्ञान भी यद्यपि कार्य में प्रवृत्ति का हेतु है ही क्योंकि 'पर्वत को उठा लाने' जैसे किसी भी कार्य में किसी भी व्यक्ति की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, भले ही उससे कितने भी बड़े इष्ट की सिद्धि क्यों न होती हो । परन्तु इस 'कृतिसाध्यता' का ज्ञान याग यादि कार्यों में लोक ( अनुमान' प्रमाण) आदि से ही सिद्ध है क्योंकि याग करने में कोई ऐसी बात नहीं दिखायी देती जो असाध्य हो । जिस प्रकार हम किसी भी साध्य कार्य को करते हैं उसी प्रकार 'याग' को भी कर सकते हैं । 'यागो मत्कृतिसाध्यः । मत्कृतिसाध्यत्वविरोधिधर्मानाक्रान्तत्वात् । मदीयनगरगमनादिवत्' इस प्रकार के अनुमान से 'याग' की कृतिसाध्यता ज्ञात हो जाती है । अतः 'यजेत' आदि 'लिङ' लकार के क्रियापदों में कृति - साध्यता को 'लिङ' का अर्थ मानना अनावश्यक है क्योंकि “अनन्य-लभ्यः शब्दार्थ : " इस न्याय के अनुसार ' प्रत्यय' आदि का अर्थ वही होना चाहिये जो किसी अन्य विधि से ज्ञात न हो सके। इसलिये 'कृतिसाध्यता' को 'लिङ्' का अर्थं न मान कर केवल 'इष्टसाधनता' को ही 'लिङ' का अर्थ मानना चाहिये क्योंकि अभीष्ट स्वर्ग का साधन याग है' इस प्रकार की यागविषयक 'इष्ट साधनता' का ज्ञान केवल वेद के 'यजेत' पद द्वारा ही हो पाता है । अतः उसकी 'अनन्यलभ्यता' - किसी अन्य
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