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दश-लकारादेशार्थ-निर्णय
२५५ 'गृहणातु' (याइये आप जल पीजिये) इत्यादि (प्रयोगों) में। 'सम्प्रश्न' (का अभिप्राय) है अनुमति (स्वीकृति)। जैसे-'गच्छति चेद् भवान् गच्छतु' (यदि आप जाते हैं तो जाइये) इत्यादि (प्रयोगों) में।
['लङ्' के 'प्रादेश' भूत 'तिङ्' का अर्थ]
लङादेशस्य तु भूतानद्यतनत्वम् अधिकोऽर्थः । शेष लड्
वत् । 'लङ' (लकार) के 'आदेश' (तिङ्') का तो 'भूत-अनद्यतन' अर्थ अधिक है। शेष (अर्थ--'संख्या' तथा 'कारक) 'लट्' (के 'आदेश' भूत 'ति' के अर्थ) के समान ही हैं।
'लङ्' लकार का विधायक सूत्र है "अनद्यतने लङ्” (पा० ३.२.१११), जिस में "धातोः “(पा० ३.१.६१) तथा “भूते (३.२.८४) इन दो सूत्रों का अधिकार चला ग्रा रहा है । "अनद्यतन" पद 'भूते' का विशेषरण है तथा 'भूते' पद 'धातु' के अर्थ 'क्रिया' का। इसलिये “अद्यतने लङ्" का अर्थ है "अद्यतन भूत काल' में होने वाली जो क्रिया उसके वाचक धातु से 'लङ् लकार होता है'। इस प्रकार 'लङ्' का विशिष्ट अर्थ हुआ 'भूत-अनद्यतनत्व' । इस 'भूतानद्यतनत्व' के अतिरिक्त 'संख्या' तथा 'कारक' रूप जो अर्थ हैं वे 'लट्' के 'आदेश' तिङ् के अर्थ समान हैं।
[लिङ' के 'प्रादेश'-भूत 'ति' का अर्थ]
लिङादेशस्य तु विध्यादिरर्थः । तत्र विध्यादिचतुष्टयस्य अनुस्यूतप्रवर्तनात्वेन चतुर्णां वाच्यता लाघवात् । तुदक्तम् हरिणाअस्ति प्रवर्तनारूपम् अनुस्यूत चतुर्ध्वपि । तत्र व लिङ विधातव्यः कि भेदस्य विवक्षया ॥
(वभूसा० पृ० १६० में उद्धृत) 'लि' (लकार) के 'आदेश' (तिङ्) के तो विधि' आदि ('निमन्त्रण' 'आमन्त्रण', 'अधीष्ट', 'सम्प्रश्न' 'प्रार्थना') अर्थ हैं । इन 'विधि' आदि ('विधि' निमन्त्रण,' 'आमन्त्रण,' तथा 'अधीष्ट') चारों पदों में समान रूप से विद्यमान 'प्रवर्तनात्व' (रूप 'धर्म' की दृष्टि) से वाच्यता (वाच्य-अर्थ) माननी चाहिये क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है। इसी बात को भर्तृहरि ने कहा है :१. भत हरि के वाक्यपदीय में यह कारिका उपलब्ध नहीं है। कौण्डभट्ट ने भी इस कारिका को 'तदुक्तम्'
कह कर उद्ध त किया है।
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