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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दश-लकारादेशार्थ-निर्णय २५१ तो यह है कि 'अनुप्रयुक्त' 'कृ', 'भू', अस् धातुएँ 'फल'रहित क्रिया-सामान्य (केवल 'व्यापार') के ही वाचक हैं। 'सकर्मकता' तथा 'अकर्मकता' का व्यवहार तो 'आम्' (प्रत्यय) की 'प्रकृति' ('ए' आदि धातुओं) के आधार पर ही होता है -- यह निष्कर्ष है। और इस प्रकार 'एधाञ्चक्रे चैत्रः' (चैत्र वद्धि को प्राप्त हुआ) इस प्रयोग में “एकत्व संख्या' से युक्त तथा 'परोक्षता' से विशिष्ट चैत्र है 'कर्ता' जिसका ऐसी, ‘भूत अनद्यतन' काल में होने वाली, वृद्धि-रूप क्रिया” यह बोध होता है। 'परोक्षत्व' (का अभिप्राय) है (मैंने) इसका साक्षात्कार किया इस प्रकार की 'विषयता' वाले ज्ञान का विषय न बनना। तथा 'भूतानद्यतनता' (का अभिप्राय) है आज के आठ प्रहर (गत रात्रि के पिछले दो, अागामी रात्रि के पहले दो और बीच के दिन के चार प्रहर) से भिन्न काल का होना। कभवाद्यनुप्रयोगस्थले...''अमिकैव क्रिया :-'एधाञ्चके', 'एधाम्बभूव' तथा 'एधामास' जैसे प्रयोगों में 'ए' आदि धातुओं के साथ "इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छ:' (पा० ३.१.३६) सूत्र से 'लिट्' लकार में ग्राम्' प्रत्यय का संयोजन तथा 'कृ', 'भू' 'अस्' का, “कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि' (पा० ३.१.४०) सूत्र के अनुसार 'अनुप्रयोग' होता है । यहाँ यह विचारणीय है कि 'याम्' प्रत्यय की प्रकृतिभूत 'ए', आदि प्रधान धातुओं तथा 'अनुप्रयुक्त' होने वाली 'क' आदि धातुओं के अर्थों का परस्पर समन्वय कैसे किया जाय --- जब कि दोनों भिन्न भिन्न क्रियाओं के वाचक हैं। इस विषय में यहां यह निर्णय दिया गया है कि इन प्रयोगों में 'अनुप्रयुक्त' होने होने वाली 'कृ', 'भू', 'अस्' धातुएं सामान्य व्यापार को कहती हैं तथा 'ए' आदि धातुएँ, जिनके साथ 'ग्राम्' प्रत्यय पाता है, किसी न किसी विशेष ('वृद्धि' के अनुकूल होने वाला 'व्यापार' आदि) 'क्रिया' को कहती हैं। इसलिये इन दोनों सामान्य तथा विशेष अर्थो का परस्पर 'अभेद' सम्बन्ध से अन्वय उसी प्रकार हो जाता है जिस प्रकार 'द्रोणः' (व्रीहिः) प्रयोग में विशेष परिमारग वाले 'द्रोण' पदार्थ का सामान्य परिमारण वाले प्रत्ययार्थ के साथ 'अभेद' रूप से अन्वय होता है । यदि दोनों ही ('ए' आदि तथा 'कृ' आदि) क्रिया-सामान्य या क्रिया-विशेष को कहते हों तब दोनों का 'अभेदान्वय' सम्भव नहीं हैं क्योंकि शाब्द बोध के लिए आवश्यक है कि इन दोनों क्रियाओं में से एक विशेष हो तथा दूसरा विशेषण-एक सामान्य अर्थ का वाचक हो तथा दूसरा विशेष अर्थ का । यहां ऐसी ही स्थिति नहीं है। इसलिये दोनों धात्वर्थों का परस्पर अन्वय सुसंगत हो जाता है। द्र०- "कृम्वस्तय: क्रिया-सामान्यवाचिन: क्रिया-विशेष-वाचिनः पचादयः” (महा० ३.१.४०) । इन 'अनुप्रयुक्त' धातुओं के क्रिया-सामान्यवाची होने के कारण ही इनके वाच्यार्थ 'क्रिया' को न तो 'सकर्मक' माना जाता है और न 'अकर्मक' अपितु 'आम्' प्रत्यय की प्रकृतिभूत धातु यदि 'अकर्मक' हो तो 'अनुप्रयुक्त' धातुएँ भी 'अकर्मक' बन जाती हैं तथा यदि वह प्रमुख धातु 'सकर्मक' हो तो ये धातुएँ भी 'मकर्मक' हो जाती हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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