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दश-लकारादेशार्थ-निर्णयः
['लकारों' के स्थान पर विहित 'प्रादेश'भूत 'तिङ्' की अर्थवाचकता के विषय में विचार]
यद्यपि लकाराणम् एवार्थ-निरूपणं ताकिकैः कृतम्, तथापि 'उच्चारित एव शब्दो अर्थप्रत्यायको नानुच्चारितः" इति भाष्यात्' लोके तथैवानुभवाच्च तदादेशतिङाम अर्थो निरूप्यते । “वर्तमाने लट्" (पा० ३.२.१२३) इत्यादि-विधायक-"लःकर्मणि.” (पा० ३.४.६९) इति शक्ति-ग्राहक-सूत्राणाम्, प्रादेशार्थं स्थानिन्यारोप्य,
प्रवृत्तिः । यद्यपि नैयायिकों ने ('लट' आदि) 'लकारों' का ही अर्थ निर्देश किया है (उनके 'प्रादेश'-भूत 'तिब्' आदि का नहीं) फिर भी उच्चारित शब्द ही अर्थ का बोधक होता है अनुच्चारित (शब्द) नहीं" इस भाष्य (के वाक्य) से तथा व्यवहार में उसी प्रकार का अनुभव होने से उन ('लकारों') के 'आदेश'भूत 'तिब' आदि का (यहाँ) अर्थ विचार किया जाता है । “वर्तमाने लट्" इत्यादि ('लकारों' का विशेष काल में) विधान करने वाले (सूत्रों) तथा 'लकारों' का अर्थ बताने वाले “ल: कर्मणि." आदि सूत्रों की रचना, 'आदेश' ('तिब्' आदि) के अर्थ का 'स्थानी' (लकारों') में 'आरोप' करके, की गई है।
लकाराणाम् ..""कृतम् नैयायिक विद्वान् यह मानते हैं कि 'कर्ता', 'कर्म' आदि 'पाख्यातार्थ' के वाचक 'लकार' हैं, 'लकार' के स्थान पर 'आदेश' के रूप में आने वाले, "तिब' आदि प्रत्यय नहीं। यदि 'तिब्' आदि 'प्रादेशों को 'कर्ता', 'कर्म' आदि अर्थों का वाचक माना गया तो, इनके अनेक होने के कारण, अनन्त वाचकता 'शक्तियों' की कल्पना करनी पड़ेगी जिसमें अनावश्यक गौरव (विचार) होगा । इसके अतिरिक्त यदि 'तिब' आदि आदेशों को वाचक माना जाता है तो 'एधाञ्चक्रे इत्यादि प्रयोगों में, जहां इन 'प्रादेशों' का 'लुक' हो जाता है या दूसरे शब्दों में अभावरूपता रहती है वहां, अभीष्ट अर्थ की प्रतीति नहीं होनी चाहिये-यह दोष उपस्थित होता है। इसलिए इन 'प्रादेशों' के 'स्थानी' 'लकारों' को ही अर्थ का वाचक मानना चाहिये । लकारों की जातिरूपता के आधार पर उनके एक होने के कारण उन्हें वाचक मानने में एक ही
१. तुलना करो-महा० १.१.६८;
उच्चार्यमाण: शब्द: सम्प्रत्यायको भवति न सम्प्रतीयमानः ।
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