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निपातार्थ-निर्णण
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दूसरे पक्ष में भी प्राप्त होने वाले उस विधान के निवारणार्थ पुनः विधान करने को 'नियम' वाक्य कहा जाता है। जैसे– “समे देशे यजेत" (सम स्थान में यज्ञ करे) यह वाक्य "स्वर्गकामो यजेत' (स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति यज्ञ करे) इस वाक्य के द्वारा सम तथा विषम सभी तरह के स्थानों में यज्ञ करने का विधान प्राप्त है। इसलिये सम देश में यजन की पाक्षिक प्राप्ति तो है ही । परन्तु विषम देश में भी यजन के पाक्षिक विधान होने से, उस स्थिति में, सम देश में यजन करने की पाक्षिक अप्राप्ति है। इसलिये “समे देशे यजेत" कह कर उस पाक्षिक अप्राप्ति का भी निवारण कर के, यह नियम बना दिया गया कि 'समे देशे एव यजेत (सम भूमि में ही यजन करे, असम भूमि में नहीं)। इस तरह इन नियम-वाक्यों में बिना 'एव' के प्रयोग के भी नियमन या 'अवधारण' की प्रतीति होती है जिससे दूसरे प्रकार की विधि के प्रतिषेध का ज्ञान होता है (द्र ० -- अर्थ संग्रह ५०)।
'परिसंख्या विधि' -परिसंख्या विधि' का लक्षण है-"तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसंख्या विधीयते' (तंत्रवार्तिक १.२.३४), अर्थात् जहाँ दूसरे प्रमाण से सामान्यतया प्राप्त कार्य का पुन: विशेष स्थिति में विधान करना जिससे सामान्यतया प्राप्त दूसरी विधि का निषेध हो जाय । यहाँ 'परि' शब्द वर्जन (निषेध) अर्थ वाला है तथा संख्या' शब्द का अर्थ है 'बुद्धि'। इस रूप में 'परिसंख्या' का शाब्दिक अर्थ हुआ निषेधात्मिका बुद्धि । निषेधात्मिका बुद्धि अथवा 'परिसंख्या' के जनक विधि को 'परिसंख्या विधि' कहा जाता है ।
'परिसंख्या विधि' का उदाहरण है— 'पंच पंचनखा भक्ष्याः' (पाँच नखवाले पाँच प्राणी भक्ष्य हैं)। मानव की मांसभक्षण की सामान्य प्रवृत्ति के कारण स्वतः सभी प्रकार के पशुओं का मांस खाना, लौकिक व्यवहार के अनुसार, विहित हो जाता हैचाहे वह मांस खरगोश का हो या कुत्ते आदि का। इस तरह सामान्यतया सभी पाँच नखवाले प्राणियों के भक्षरण की प्राप्ति होने पर 'पाँच नखवाले' परिगणित पाँच-. गोधा, कूर्म, शशक, शल्यक तथा खड्ग-पशु ही भक्ष्य हैं' इस विशेष विधान के द्वारा यह नियमन किया गया कि यदि पाँच नखवाले प्राणियों का मांस खाना है तो जिस किसी भी पांच नख वाले प्राणी का माँस नहीं खाना चाहिये अपितु, पांच नख वाले केवल उपर्युक्त पाँच प्राणियों का ही मांस खाना चाहिये । पाँच नख वाले इन प्राणियों का संग्रह वाल्मीकीय रामायण के निम्न श्लोक में किया गया है: .....
पंच पंचनखा भक्ष्याः ब्रह्मक्षत्रेण राघव । शशक: शल्ककी गोधा खड्गी, कूर्मोऽथपंचमः ।
(किष्किन्धा काण्ड १७.३६) ___ मनुस्मृति (५.१८), याज्ञवल्क्यस्मृति (१ १७७) तथा वसिष्ठस्मृति (१४.३६) में भी इन पाँच प्राणियों का उल्लेख मिलता है।
'परिसंख्या' के इस स्वरूप के सम्बन्ध में अर्थसंग्रह (५१) का यह अंश द्रष्टव्य है --"उभयोश्च युगपत् प्राप्तौ इतर व्यावृत्तिपरो विधिः 'परिसंख्याविधिः' । यथा-'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' इति । इदं हि वाक्यं न पंचनखभक्षणपरं, तस्य रागत: प्राप्तत्वात् । नापि नियमपरः-पंच पंचनख-अपंचनख-भक्षरणस्य युगपत् प्राप्ते: पक्षेऽप्राप्त्यभावात् । अतः इदम् अपंच-पंचनख-भक्षण-निवृत्तिपरम्, इति भवति 'परिसङ्ख्याविधिः" ।
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