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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
'घट' रूप ‘पदार्थ' ('घट' पद का अर्थ) का अन्वय नहीं हो सकता क्योंकि--- "पदार्थ-पदार्थ के साथ (ही) अन्वित होता है उस (पदार्थ) के एक देश के साथ नहीं"- यह, एक न्याय है। इसके अतिरिक्त दोनों ('घट'तथा 'नन्' पदों में) 'लक्षणावृत्ति' मानने में गौरव भी है। भाष्यकार के मत में (भी) 'लक्षणा त्ति'वृत था 'निपातों' की वाचकता को स्वीकार नहीं किया गया है। यह ('नन्' के अर्थ के विषय में) संक्षिप्त विवेचन है।
अतएव 'अन्योऽन्याभाव०'.. संगच्छते-'घटो न पट:' इस प्रयोग में 'घट' शब्द की 'घट भिन्न पट' अर्थ में 'लक्षणा' मानने से 'घट' का तिङन्त पद ('अस्ति') के साथ सामानाधिकरणय हो जायगा जिससे 'घट' शब्द के साथ प्रथमा विभक्ति का संयोजन हो सकेगा। इस रूप में 'भेद' के प्रतियोगी 'घट' तथा अनुयोगी 'पट' दोनों में समान विभक्ति होने से यहां 'अन्योन्याभाव' अर्थ का बोध हो सकेगा और वृद्ध विद्वानों के द्वारा कथित न्याय, “अन्योऽन्याभाव' के बोध में 'प्रतियोगी' तथा अनुयोगी' पदों में समानविभक्ति का प्रयोग निमित्त बनता है" (अन्योऽन्याभाव-बोचे प्रतियोग्यनुयोगिपदयोः समान-विभक्तिकत्वं नियामकम्) भी सुसंगत हो जायगा।
परन्तु यदि उपर्युक्त पद्धति न मानी गयी तो 'घट' का, 'प्रतियोगिताबोधकत्व' सम्बन्ध से,'पट' में अन्वय स्वीकार करना होगा । इस तरह 'घट' पद का 'क्रिया ('अस्ति') पद के साथ समान-अधिकरणता न बन सकेगी और तब, क्रिया के द्वारा उसके अनुक्त होने के कारण, 'घट' शब्द के साथ प्रथमाविभक्ति नहीं आ सकेगी। इस स्थिति में, भिन्न विभक्तिकता के होने पर, वृद्ध विचारकों का उपर्युक्त न्याय असंगत हो जायगा ।
यत्त 'घट'पदं...."स्वीकाराभावात्-यहां नैयायिकों के मत को अनुचित एव युक्ति-रहित प्रतिपादन करने में नागेश ने तीन हेतु दिये हैं । प्रथम यह कि नैयायिकों के अनुसार 'घट' का अर्थ होगा 'घट-प्रतियोगी' ('घट का') तथा 'नन्' का अर्थ होगा 'भेदवान्' । परन्तु अन्वय करते हुए 'घट' पद के अर्थ 'घटप्रतियोगी' का 'नम्' के अर्थ 'भेदवान्' में अन्वय न करके, 'भेदवान्' इस अर्थ के एक भाग, 'भेद' रूप अर्थ के साथ अन्वय करना होगा। इसलिये इस अन्वय में “पदार्थः पदार्थेन अन्वेति न तु पदार्थंकदेशेन" इस न्याय से विरोध उपस्थित होगा।
दूसरा हेतु यह है कि नैयायिकों के अनुसार दोनों 'घट' तथा पट' पदों में 'लक्षणा' वृत्ति माननी होगी जिस में अनावश्यक गौरव होगा तथा पंतंजलि के मत से विरोध भी होगा क्योंकि वे 'लक्षणा' वृत्ति को नहीं मानते । इस मत का प्रतिपादन 'लक्षणानिरूपण' के प्रकरण में किया जा चुका है।
तीसरा हेतु यह है कि भाष्यकार पतंजलि 'निपातों' को वाचक नहीं मानते । 'निपात' अर्थ के द्योतक होते हैं यही मत पतंजलि को अभीष्ट है क्योंकि 'नन्' निपात के विषय में उन्होने स्पष्ट कहा है-"ननिमित्ता तूपलब्धि:" अर्थात् 'न' के कारण तो (उस साथ में उच्चरित पद के अर्थ का) द्योतन होता है । परन्तु नैयायिक 'निपातों' को वाचक मानते हुए यहां 'न' को 'भेदवान्' अर्थ का वाचक बताते हैं इसलिये, इस दृष्टि से भी, पतंजलि से उनका विरोध दिखाई देता है ।
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