________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२०८
www.kobatirth.org
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
[" 'इव' सादृश्य अर्थ का वाचक है" इस नैयायिक मत का खण्डन ] यत्त इवार्थ: सादृश्यम्", तत्र प्रतियोग्यनुयोगिभावेनैव चन्द्रमुखयोरन्वयोपपत्तौ कि लक्षणया ? तथा च 'चन्द्रप्रतियोगिकसादृश्याश्रयो मुखम् ' इति बोध इत्याहुः - तन्न । 'चन्द्र इव मुखं दृश्यते', 'चन्द्रम् इव मुखं पश्यामि' इत्यादौ 'चन्द्र' पदस्य मुखरूपकर्म-सामानाधिकरण्याभावाद् उक्तानुक्तत्व-प्रयुक्तविभक्त्यनापत्तेः षष्ठ्यापत्तेश्च ।
( नैयायिक विद्वान् ) जो यह कहते हैं कि- 'इव' का वाच्य (अर्थ) 'सादृश्य' है | उस ('सादृश्य') में 'प्रतियोगी' तथा 'अनुयोगी' सम्बन्ध से ही 'चन्द्र' तथा ' मुख' के अन्वय की सिद्धि हो जाने पर ( 'चन्द्र' शब्द की 'चन्द्र- सदृश' अर्थ में) 'लक्षणा' मानने की क्या आवश्यकता ? इस प्रकार 'चन्द्र' है" प्रतियोगी' जिसमें ऐसे सादृश्य का आश्रय मुख हैं" यह ज्ञान होता है वह उचित नहीं है क्योंकि 'चन्द्र इव मुखं दृश्यते' (चन्द्र- सदृश मुख दिखाई देता है), 'चन्द्रम् इव मुखं पश्यामि' ( चन्द्र- सदृश मुख को देखता हूं) इत्यादि (प्रयोगों) में, 'चन्द्र' शब्द का मुख रूप 'कर्म' के साथ एकाधिकरणता न होने के कारण, 'अभिहित' तथा 'अनभिहित' के आधार पर होने वाली (प्रभीष्ट प्रथमा तथा द्वितीया ) विभक्ति नहीं प्राप्त होगी तथा (अनिष्ट) षष्ठी विभक्त प्राप्त होगी ।
―
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यत्तु इवार्थ: 'इत्याहु: - नैयायिक 'इव' को 'सादृश्य' अर्थ का द्योतक न मान कर, वाचक मानते हैं। उनका यह कहना है कि 'इव' के वाच्य अर्थ 'सादृश्य' में 'चन्द्र' 'प्रतियोगी' है तथा ' मुख' 'अनुयोगी' है, अर्थात् 'चन्द्र इव मुखम्' इस वाक्य का अर्थ ऐसा 'सादृश्य' है जिसमें 'चन्द्र' 'प्रतियोगी' (एक तरह से विशेषण ) है तथा ' मुख' 'अनुयोगी' (एक तरह से विशेष्य ) । इस रूप में 'चन्द्र' में विद्यमान जो 'प्रतियोगिता' उसका निरूपक जो सादृश्य उसका प्राश्रय मुख - इस प्रकार का अन्वय, बिना 'लक्षणा' की कल्पना किये ही हो जाता है । इसलिये 'इव' को तात्पर्यग्राहक मानने तथा 'चन्द्र' जैसे पदों में लक्षणा का सहारा लेने की क्या आवश्यकता ? लाघव की दृष्टि से 'इव' को ही वाचक क्यों न माना जाय ।
तन्न ' षष्ठ्यापत्ते इच-- नैयायिकों के इसी अभिमत का खण्डन नागेश ने इस अंश में किया है । नैयायिकों के मत के खण्डन में नागेश ने जो युक्ति दी है वह यह है कि इस मत को मानने से अनेक प्रयोगों में 'अभिहित' एवं 'अनभिहित' सम्बन्धी व्यवस्था उपस्थित होती है । इसलिये, व्याकरण की प्रक्रिया को देखते हुए, यह मत कथमपि मान्य नहीं हो सकता । इस अव्यवस्था के दृष्टान्त के रूप में यहां दो प्रयोग प्रस्तुत किये गए हैं - 'चन्द्र इव मुखं दृश्यते' तथा 'चन्द्रम् इव मुखं पश्यामि' । प्रथम प्रयोग में 'चन्द्र' तथा ' मुख' दोनों प्रथमा विभक्ति से युक्त हैं तो दूसरे में द्वितीया विभक्ति से ।
अब यदि 'इव' को 'सादृश्य' अर्थ का वाचक माना जाय तो उपरि निर्दिष्ट वाक्यों में ' मुख' की 'चन्द्र' के साथ एकाधिकरणता नहीं बन पाती क्योंकि 'इव'
For Private and Personal Use Only